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________________ नवमः सर्गः। 413 विहायेति / किश्च हा बत! स्वया सर्वसुपर्वनायकं देवेन्द्रं विहाय नरे मनुष्ये साधिमभ्रमः साधुत्वभ्रान्तिः / पृथ्वादिपाठात् साधोरिमनिप्रत्ययः। किं किमर्थमादृतः ? अथवा नियतिः केन लक्ष्यत इत्याशयेनाह-श्वसितस्य धारया निश्वासपरम्परया (का) मुखं मुखद्वारं विपुलं विमुच्य वृथैव नासापथेन नासारन्ध्रणातिक्लिष्टेन धावनश्रम आहतः खल्विति शेषः / तद्वत्तवापि ईदृशी भवितव्यतेति भावः / दृष्टान्तालङ्कारः॥४४॥ सब देवोंके प्रभु ( इन्द्र) को छोड़कर तुमने मनुष्यमें श्रेष्ठताके भ्रमका क्यों आदर किया अर्थात् मनुष्यको श्रेष्ठ क्यों समझा ! ( अथवा-'रलयोरभेदः' इस नियमके अनुसार नलको श्रेष्ठ क्यों समझा ?) अथवा-'किंनर- पद को एक मान कर निन्दित मनुष्य ( अथवा-निन्दित नल, अथवा देवापेक्षासे हीन 'किन्नर' देव योगि-विशेष ) को श्रेष्ठक्यों समझा !; पाठा०-धारण किया, व्यर्थ में धारण किया ? मुख छाड़कर श्वास धारा ( श्वासप्रवाह ) को नाकके मार्गसे चलने का प्रयास करना व्यर्थ है। [ सब देवों के स्वामी इन्द्रको छोड़ कर मनुष्य (य! नल या किन्नर ) को उनसे श्रेष्ठ समझने का आग्रह करना विशाल मुखबिलको छोड़कर सङ्कीर्ण नाकके बिलसे श्वास लेनेके श्रमके समान व्यर्थ श्रम बड़ाना है; अत एव तुम ऐसे भ्रममें न पड़कर देवराज इन्द्रको वरग करो ] // 44 / / तपऽनले जुह्वति सूरयस्तनूदिवे फलायान्यजनुभविष्णवे / करे पुनः कति सैव विह्वला बलादिव त्वां वलसे न बालिशे!॥४५॥ __ तप इति / किञ्च सूरयः सन्तः अन्यस्मिन् जनुषि जन्मान्तरे भविष्णवे भाविन्य। 'भूष्णु विष्णुविता' इत्यमरः / “भुवश्च" इति इष्णुचप्रत्ययः। "भाषायाम. पीष्यते" भाषितपुंस्कत्वात् पुंवद्भावः / दिवे स्वर्गायैव फलाय तनूः शरीराणि तपोऽनले जुह्वति त्यजन्ति / “अदभ्यस्ता" दित्यदादेशः / त्वां पुनः सा प्राणान्तिकतपःसाध्या द्यौरेव विह्वला उत्सुका मती बलाद्वलात्कारादिव करे कर्षति हे बालिशे ! मूढे ! 'शिशावशे च बालिशः' इत्यमरः / न वलसे न चलसि नेच्छसीत्यर्थ / अह ते दुर्बुद्धिरिति भावः // 45 // विद्वान् लोग दूसरे जन्म में होने वाले स्वर्ग ( की प्राप्ति रूप ) फलके लिये तप ( चान्द्रायगादि व्रत तपश्चर्यारूप ) अग्नि में अपने शरीरोंको हवन करते हैं अर्थात् चान्द्रायाणादि ब्रत करने में शरीरको कृश करते हैं, वही ( इन्द्रादि रूप स्वर्ग) ब्याकुल होकर तुम्हें बार बार मानो हठसे खींच रहा है; ( किन्तु ) हे मूर्ख ! ( तुम उसे ) नहीं चाहती ( यह आश्चर्य है)। [जिस स्वर्गको पाने के लिये विद्वानलोग भी ( मूर्ख नहीं या एक ही विद्वान् नहीं; अपि तु बहुत-से विद्वान् ) तपस्यादिके द्वारा अपनेको हवन कर देते हैं, वही स्वर्ग अपने यहां आश्रय देने के लिये हठपूर्वक इन्हें बार बार खींच रहा है, फिर भी तुम उसे नहीं चाहती, यह बड़ी मूर्खता है / तुम अपनी मूर्खतापूर्ण दुराग्रह छोड़कर इन्द्रादिका वरण करो] / / 45 / /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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