SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 552
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवमः सर्गः। 453 पुरःसुरीणां भण केव' मानवी न यत्र तास्तत्र तु सापि शोभिका / अकाबनेऽकिञ्चननायिकामके किमारकूटासरणेन न श्रियः // 28 // पुर इति / सुरीणी सुरस्त्रीणां, "जातेरस्त्रीविषयादि" त्यादिना डीए। पुरोऽग्रे मानवी मानुषी केव न कापि / तुच्छेत्यर्थः / इवशब्दो वाक्यालङ्कारे भण वद / किंतु यत्र लोके ताः सुरस्त्रियो न सन्ति तत्र सा मानव्यपि शोभत इति शोभिका शोभमाना, "प्रत्ययस्थात्कारपूर्वस्ये"तीकारः / अकाञ्चने काश्चनाभरणरहिते, अकारान्तोत्तरपदो बहुव्रीहिः। नास्ति किञ्चनास्येत्यकिञ्चनो निःस्वः / उच्चावचाकिञ्चनाऽकुतोभयानीति मयूरव्यंसकादिषु निपातनात्तत्पुरुषः / तस्य नायिका भार्या तस्या अङ्गाके देहे आरकूटस्य रीतिर्विकार आरकूटम् / 'रीतिः स्त्रियामारकूटम्' इत्यमरः। तेनाभरणेन श्रियः शोभा न / किन्तु, सरस्त्रीविहारिणो महेन्द्रस्य मानुषीकामुकत्वं काञ्चनाभरणचुञ्चोरारकूटाभरणस्पृहेव महत्परिहासास्पदमित्यहो कष्टमिति भावः। अत्र दृष्टान्तालङ्कारः // 28 // देवियोंके आगे मानुपी क्या है ( पाठा०-किससे, किस गुणसे श्रेष्ठ है ? अर्थात् किसी भी गुणसे श्रेष्ठ नहीं है ) अर्थात् कुछ नहीं है-बहुत तुच्छ है। जहांपर वे (देवियां) नहीं हैं, वहांपर वह (मानुषी ) शोभती है, सुवर्णसे वर्जित निर्धन व्यक्तिकी स्त्रीके शरीरमें पीतलके एक भूषणसे भी शोमा नहीं होती है क्या ? अर्थात् अवश्य होती है। [निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि द्रुमायते"नीतिके अनुसार जहां देवियां नहीं है, वहीं अर्थात् देवियों से हीन भूलोकमें ही मैं सुन्दरी हूं किन्तु देवियों के सामने अर्थात् देवियोंसे परिपूर्ण स्वर्गमें मेरा सौन्दर्य किसी गणनामें नहीं है, अत एव देवाङ्गनाओंको छोड़कर मुझे चाहना इन्द्रके लिये स्वर्णका त्यागकर पीतलके एक भूषणकी इच्छा करने के समान असम्भव या उपहासास्पद है ] // 28 // यथा तथा नाम गिरः किरन्तु ते श्रुती पुनमें बधिरे तदक्षरे / पृषकिशोरी कुरुतामसङ्गतां कथं मनोवृत्तिमपि द्विपाधिपे // 26 // यथा तथेति / यथा तथा येन तेन प्रकारेण ते गिरः किरन्तु वर्षन्तु नाम / किन्तु, मे मम श्रुती श्रोत्रे पुनस्तदक्षरे तासां गिरां वर्णमात्रेऽपि विषये बधिरे। अश्रुतप्रायं तदित्यर्थः / तथाहि-पृषत्किशोरी कुर-युवतिः। 'पृषञ्च पृषतो बिन्दौ कुरङ्गेऽपि च कीर्तितः' इत्यजपालः / द्विपाधिपेऽपि श्रेष्ठगजेऽपि असङ्गतामयुक्तां मनोवृत्तिमभिलाषं कथं कुरुतां कुर्यात् , तत्प्रायमिदं नो मनीषितमिति भावः / अत्रापि दृष्टान्तालङ्कारः॥ 29 // ___ वे ( इन्द्रादि दिक्पाल ) जैसे-तैसे ( जिस किसी तरह से या इच्छासे ) बातें कहें ( किन्तु मेरे ) कान उनके अक्षर ( एक भी अक्षर के सुननेमें, फिर अधिक बातोंको कौन 1. "केन" इति "कैव" इति च पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy