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________________ नवमः सर्गः। 473 ही समर्थ हैं, [ 'तुम यह कहो, मैंने यह कहा' इत्यादि प्रकारसे ही प्रत्यक्षमें बातचीत होनेसे नाम तथा वंशका भी परिचय देना व्यर्थ है ] // 9 // यदि स्वभावान्मम नोज्वलं कुलं ततस्तदुगावनमोचिती कुतः। अथावदातं तदहो विडम्बना यथा तथा प्रेष्यतयोपसेदुषः // 10 // अकथने च कारणमाह-यदीति / मम कुलं स्वभावादुज्ज्वलमकलईन यदि, ततस्तर्हि तस्य कुलस्योद्भावनं प्रकटनं कुत औचिती औचित्यं नोचितमित्यर्थः / धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् औचिती व्याख्यातव्या। अथावदातमुज्ज्वलं तथापि यथा तथा कथशिदपि प्रेष्यतया किकरतया उपसेदुषः प्राप्तस्य मम तत् कुलोनावनं विडम्बना परिहासः। अहो // 10 // यदि मेरा वंश स्वभावसे ही निर्मल (निदोष-श्रेष्ठ) नहीं है तो उसका कहना किस प्रकार उचित है ? अथवा ( यादे मेरा वंश स्वभावतः ) निर्मल है तो दूत बनकर आये हुए मेरा उसको कहना विडम्बना है, अहो ! आश्चर्य है / [ यदि मेरा वंश नीच है तो नीच अर्थात् सदोष उस वंशका परिचय देना कैसे सम्भव है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपना भी दोष नहीं बतलाता तो भला वंशका दोष कैसे बतला सकता है ? और यदि मेरा निर्मल कुल है तो भी में इस समय दूसरे का दूत बनकर तुम्हारे पास आया हूँ और किसी उच्च कुलमें उत्पन्न किसी व्यक्तिका किसीके दूतका कार्य करना अच्छा नहीं समझा जाता, इस दृष्टिसे भी उच्च कुल होने पर भी इस समय तुमसे बतलाना मेरे कुलका उपहास ही है; यही कारण है कि मैं अपना नाम तथा वंश नहीं बतलाता ] // 10 // इति प्रतीत्यैव मयावधीरिते तवापि निर्बन्धरसो न शोभते / हरित्पतीनां प्रतियाचिकं प्रति श्रमो गिरां ते घटते हि संप्रति // 11 // इतीति / इतीत्थं प्रतीत्य कुलनामकयनं वृथेति निश्चित्यैव मयाऽवधीरिते उपेक्षिते सति तवापि निर्बन्धरसो निर्बन्धेच्छा न शोभते / किंतु सम्प्रति हरिपती. नामिन्द्रादीनां प्रतिवाचिकं प्रतिसन्देशं प्रत्युत्तरं प्रतीत्यर्थः। ते तव गिरां श्रमः प्रयत्नः वाग्व्यापारो घटते युज्यते हि // 11 // इस ( श्लो० 8-10) विश्वाससे ही मुझसे तिरस्कृत ( उत्तर नहीं दिये गये) प्रश्नके विषय में तुम्हारा भी अधिक आग्रह नहीं शोभता है ( अथवा-इस विश्वाससे ही मैंने : कुल-नाम ( के उत्तर देने ) का तिरस्कार किया है अर्थात् कुल-नाम नहीं बतलाये हैं, तुम्हारा भी ( उस विषयमें ) अधिक आग्रह नहीं शोभता है। अत एव इस समय दिक्पालोंके प्रतिवाचिक ( सन्देशका प्रत्युत्तर ) के प्रति तुम्हारे वचनों का श्रम उचित है अर्थात् इन्द्रादि दिक्पालोंके सन्देश का उत्तर देना युक्त है / [निरर्थक मेरे नाम तथा कुलके उत्तरके लिये आग्रह छोड़कर प्रासङ्गिक दिक्पालोंके सन्देशोंका उत्तर देना युक्त है ] // 11 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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