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________________ अष्टमः सर्गः। दो, प्रसन्न होवो। [ यदि कोई साधारण औषध रोगीकी प्राणरक्षा नहीं करता, तब उससे भी अधिक श्रेष्ठ औषध उस रोगीको पिलाकर उसकी प्राणरक्षा करना उचित माना जाता है, अतः अमृत पीनेसे हम लोगों के प्राणरक्षा नहीं हो सकती, इस कारण तुम अमृतसे भी अधिक गुणवाले अपने अधरामृतका पान कराकर हम लोगोंकी प्राणरक्षा करो] // 104 / / प्लुष्टश्चापेन रोपैरपि सह मकरेणात्मभूः केतुनाऽभू. द्वत्तां नस्त्वत्प्रसादादय मनसिजतां मानसो नन्दनः सन् | भ्रभ्यां ते तन्वि ! धन्वी भवतु तव सितै त्रमल्लः स्मितैस्ता दस्तु त्वन्नेत्रच चत्तरशफरयुगाधीनमीनध्वजाङ्कः // 105 / / प्लुष्ट इति / हे तन्वि ! दमयन्ति ! आत्मना स्वयमेव भवतीत्यात्मभूः कामः स्वैः स्वकीयैः चापेन रोपैर्बाणः, 'पत्री रोप इषुद्धयोः' इत्यमरः। मकरेणैव केतुना च सह प्लुष्टो दग्धोऽभूत् / स आत्मभूरथेदानीं तव प्रसादाद्धेतोः नोऽस्माकं तव च सम्भूयेत्यर्थः। "त्यदादीनि सनित्यम्" इति युष्मदस्मदोरेकशेषे परशेषः / मानमो मनासम्बन्धी नन्दनः पुत्रः आनन्दयिता च सन् / 'नन्दतो हर्षक सुते' इति विश्वः। मनसिजातो मनसिजस्तस्य भावस्तत्ता तां "सप्तम्यां जनेर्डः" "हलदन्तात्सप्तम्या: संज्ञायाम्" इत्यलुकाधत्तां दधातु "तुह्मोस्तातङडाशिष्यन्यतरस्याम्"। प्लुष्टः दग्ध आत्मभूर्भवस्वस्तु मनसोऽप्यात्मत्वादित्यर्थः / “आत्मा देहमनोब्रह्मस्वभावरतिबु. द्धिषु" इति विश्वः / त्वय्यस्मासु च कामस्तुल्यवृत्तिरस्त्विति भावः / किञ्च ते तव भ्रभ्यां धन्वी चापवान् भवतु / धन्वन्शब्दावीह्यादिपाठादिनिः / तव सितैर्निमलैः स्मितैर्ह सितैः जैत्रा भल्ला यस्य सः जित्वरेषुः स्ताद्भवतु अस्तेर्लोटि तेस्तातडादेशः / तव नेत्रे एव चत्तरावतिचञ्चलौ शफरौ तयोर्युगं तदधीनस्तल्लभ्यो मीनरूपो ध्वज एवाको लान्छनं यस्य सोऽस्तु त्वन्नेत्राभ्यां मीनध्वजवानस्त्वित्यर्थः / अत्र यथा. संख्यसङ्कीणों रूपकालंकारः। स्रग्धरा वृत्तम् // 105 // आत्मभू ( स्वयम् या मनसे उत्पन्न होनेवाला = कामदेव ) धनुष, बाणों तथा मकररूप पताका के साथ दग्ध हो गया अर्थात् जल गया; फिर वह तुम्हारी तथा हम लोगोंकी प्रसनतासे अर्थात् हम दोनोंके सहयोगसे मनः सम्बन्धी पुत्र (पक्षा०-मनका आनन्दाता) होता हुआ मनसिजभाव को धारण करे मनके मी आत्मा होनेसे फिर आत्मभू बने ) / और हे तन्वि ! ( वह मनसिज ) तुम्हारे भूदयसे धनुषवाला होवे, श्वेतवर्ण मुस्कानोंसे विजयी भालोंवाला होवे और तुम्हारे नेत्ररूपी शोभमान (या चञ्चल) मीनद्वयवाली पताकाके चिह्न से युक्त अर्थात् उक्तरूप मीनद्वयचिहित पताका वाला बने / [चाप, बाण तथा पताकाके साथ भस्म हुआ भी कामदेव हमारे तथा तुम्हारे साथसे मनसे उत्पन्न, मनको आनन्दित करनेवाला तथा उक्त प्रकारसे धनुष आदिसे पुनः युक्त होवे ] // 105 / /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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