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________________ नैषधमहाकाव्यम् / पूज्य आप हमलोगों के इस हृदय ( अन्तःकरण, पक्षा०-भीतर ) में स्थित है ही; अतः भाप बहिदृश्यमान हृदय ( छाती ) को उस प्रकार अलकृत करें जिस प्रकार लक्ष्मी विष्णु के हृदयको अलस्कृत करती है / [चिरकालसे निवास किये हुए स्थानको पुनः सर्व प्रत्यक्षमें सुशोभित करनेमें तुम्हें निषेध नहीं करना चाहिये, क्योंकि विष्णुके भीतर हृदयमें चिरकालसे स्थित लक्ष्मी उनके बाहर हृदयको भी सुशोभित करती है। तुम्हें हमलोग बहुत समयसे हृदयसे चाहते हैं, अतः अब तुम हमलोगोंको स्वीकार करनेकी कृपा करो] // 95 / / दयोदयश्चेतसि चेत्तवाभूदलङ्करु द्यां विफलो विलम्बः / भुवः स्वरादेशमथाचरामो भूमौ धृति यासि यदि स्वभूमौ / / 66 / / दयेति / तव चेतसि दयोदयः दयाविर्भावः अभूच्चेत् यां स्वर्गमलङ्गुरु विलम्बो विफल इत्यर्थः / 'शुभस्य शीघ्रम्' इति न्यायादिति भावः / अथाथवा स्वभूमौ स्वजन्मस्थाने भूमौ भूलोके ति सन्तोषं यासि यदि तर्हि भुवो भूमेः स्वरादेशं स्वर्गसंज्ञामाचरामः वयं चात्रैव स्थास्याम इत्यर्थः / स्वाधिष्ठित एव स्वर्ग इति भावः।। ___ तुम्हारे चित्तमें ( हमलोगोंके ऊपर ) यदि दयाका उदय हुआ हैं तो ( तुम ) स्वर्गको अलंकृत करो, विलम्ब करना निष्फल ( व्यर्थ ) अर्थात् विलम्ब मत करो। अथवा अपनी उत्पत्तिकी भूमि अर्थात् अपनी जन्मभूमिमें (निवास करनेसे ) यदि तुम सन्तुष्ट होती हो तो हमलोग पृथ्वीको ही स्वर्ग बना देंगे अर्थात् पृथ्वीपर ही तुम्हारे साथ रहते हुए हमलोग इसे स्वर्गकी भोग-सामग्रियोंसे पूर्ण कर देंगे ( पाठा०-यदि तुम्हें अपनी जन्मभूमिमें अनुराग है तो हमलोग पृथ्वीको ही स्वर्ग बना देंगे)। [ तुम्हारी इच्छाके अनुसार हमलोग स्वर्ग या पृथ्वी-दोनोंमेंसे कहीं भी तुम्हारे साथ रहनेके लिये तैयार हैं, इस कारण शीघ्र ही हमलोगोंको स्वीकार कर तुम बतलाओ कि कहां रहना चाहती हो ? ] 96 // धिनोति नास्मान् जलजेन पूजा त्वयान्वहं तन्वि ! वितन्यमाना। तव प्रसादाय नते तु मौलौ पूजास्तु नस्त्वत्पदपकुजाभ्याम् / / 17 // धिनोतीति / हे तन्वि ! त्वया अन्वहमनुदिनं वीप्सायामध्ययीभावे "अनश्च, नपुंसकादन्यतरस्याम्" इति समासान्तः, "अह्वष्टखोरेव" इति टिलोपः / वितन्यमाना क्रियमाणा जलजेन जातावेकवचनम् / जलजैः पूजा अस्मान् न धिनोति न प्रीणयति / किन्तु तव प्रसादाय प्रसादार्थ नते नने मौलौ मलि त्वत्पदपङ्कजाभ्यां नोऽस्माकं पूजा अस्तु / प्रणयापराधेषु त्वत्पादताडनार्थिनो वयमिति भावः // 97 // हे तान्व ! तुम्हारे द्वारा प्रतिदिन कमलोंसे विशिष्ट रूपसे की जानेवाली पूजा हमलोगों को प्रसन्न नहीं करती है, (अतएव, प्रणयकुपित ) तुम्हें प्रसन्न करनेके लिए नम्र हमलोगोंके मस्तकोंपर तुम्हारे चरण-कमलोंसे पूजा होवे / [ तुम देव मानकर हमलोगोंकी जो कमलोंसे पूजा करती हो, हमलोग प्रसन्न नहीं हैं, अतः तुम्हारे स्वीकार कर लेनेपर पति होकर 1. "इमामेव देवालयतां नयामो भूमौ रतिश्चेत्तव जन्मभूमौ" इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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