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________________ 456 नेषधमहाकाव्यम् / वाचिकं कथयन्ति / किमिति-स्मर एवं भिल्लोऽन्त्यजभेदः / 'मूलाश्लेषादयो भिल्ला कथ्यन्ते छन्त्यजातयः' इति हलायुधः / तस्य शल्यैः शरैर्मूर्च्छतां मुह्यतां नोऽस्माकं मुदे त्वं विशल्या उद्धृतशल्या च सा औषधिर्वल्ली विशल्यकरणी लता / एधि भव अस्तेर्लोपमध्यमकवचनं "ध्वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च" इत्येकारः / “हुझल्भ्यो हेर्षिः(१)" "धि च" इति सकारलोपः // 90 // ये (इन्द्रादि चारों देव ) एक-एक ( पाठा०-प्रत्येक ) बड़े-बड़े स्तनोंको उपपीडित करते हुए आलिङ्गनकर तुम्हारे विषयमें अर्थात् तुमको सन्देश भेजे हैं कि-तुम कामदेवरूप भील (मारनेवाला व्याधा ) के बाणोंसे मूच्छित होते हुए हमलोगोंको विशल्य (बागरहित करनेवाली ) नामक औषधि-लता बनो / अर्थात् हम लोगोंको वरणकर हमलोगोंकी कामपीडा दूर करो // 90 // त्वकान्तिमस्माभिरयं पिपासन मनोरथाश्वासनय कयैव / निजः कटाक्षः खलु विप्रलभ्यः कियन्ति यावद्भण गसराणि // 91 / / अथ षोडशभिः श्लोकः सन्देशमेवाह-वदित्यादि / हे भैमि ! त्वत्कान्ति स्वबा. वण्यामृतं पिपासन् पातुमिच्छन् , पिबतेः सनन्ताबाटः शत्रादेशः / अयं निजोऽस्मदीयः कटाक्षोऽस्माभिः कियन्ति वासराणि यावत् कियदिनपर्यन्तमित्यर्थः। अत्यन्तसंयोगे द्वितीया, अवधौ यावच्छब्दः / एकया मनोरथेन मनोरथप्राप्या या आचा. सना तयैव अयं ते मनोरथ इदानीमेव प्राप्स्यत इत्येवमुपसान्त्वनयैव विप्रलभ्यः प्रतार्यः खलु ? भण पथिकैस्तृषित इवेति भावः / अलं कालयापनया, दिवो वयमनुकम्पनीया इति तात्पर्यार्थः // 91 // ___ तुम्हारे सौन्दर्यको पीनेकी इच्छा करनेवाले इस अपने कटाक्षको हमलोग कितने दिनोंतक केवल एक ही मनोरथके आश्वासन (तुम्हें प्रिया दमयन्ती अवश्य प्राप्त होगी, ऐसी सान्त्वना ) से वश्चित करते रहेंगे ? यह निश्चितरूपसे कहो / [जिस प्रकार मार्गमें चलते-चलते प्यासे हुए बच्चेको 'थोड़ी दूर चलनेपर शीघ्र ही पानी मिलेगा' इस प्रकार सान्त्वना देकर कुछ समयतक ही उसे वञ्चित किया जा सकता है, कई अर्थात् अनेक दिनोंतक नहों, उसी प्रकार हमलोगों का कटाक्ष अर्थात् दृष्टि तुम्हारे सौन्दर्यको प्यासी है, उसे तुम्हारे प्राप्तिरूप मनोरथपूर्णताके आश्वासनसे हमलोग कितने दिनोंतक वञ्चित करते रहेंगे ? यह निश्चित कहो, क्योंकि बहुत दिनोंतक उसे एक ही आश्वासनसे वञ्चित करते रहना हमलोगोंके लिए अशक्य है / अतः तुम शीघ्र हमलोगों को स्वीकृत करो ] // 91 // . (१)चिस्यमिदम् "धि च" इति सकारलोपानवकाशात् / अत्र हि वसोरे. बावभ्यासलापश्चति एरवे तस्याभीयतयाऽसिद्धस्वेन हेादेशे "श्नसोरखोप" इति भलोपे 'एधि' इत्यस्य सिद्धत्वादिति बोध्यम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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