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________________ 434 नैषधमहाकाव्यम् / छायारूप होनेसे आप नल ही ज्ञात होते हैं, नहीं ता नलके स्वरूपके साथ इतनी समानता क्यों है ?) / / 46 // इयत्कृतं केन 'महीजगत्यामहो महीयः सुकृतं जनेन / पादौ यमुहिश्य तवापि पद्यारज सु पात्रजमारभेते // 47 // इयदिति / महीजगत्यां भूलोके केन जनेन इयदेतावन्महीयो महत्तरं सुकृतं कृतमहो, यं जननुद्दिश्य तवापि पादौ पद्यारजासु मार्गधूलिषु पद्मस्त्रज पनमालामारभेते कुर्वाते अहो, यं जनमुद्दिश्यागतस्त्वं स धन्यो वक्तव्य इति तात्पर्यम् // 47 // भूलोकमें किस आदमींने इतना अत्यधिक पुण्य किया है ? आश्चर्य है, जिसके उद्देश्य से ( अतिसुकुमार एवं सम्राट् ) आपके भी चरण मार्गकी धूलियोंमें (चिह्नों के द्वारा कमलमालाका आरम्भ करते हैं अर्थात चिह्नरूपसे कमल-मालाकी रचना कर देते हैं। पाठा०हे पृथ्वीपति (नल) से समान कान्तिवाले !) / [जिस आदमीके उद्देश्यसे चरणों में कमलचिह होनेसे चक्रवती आप पैदल ही मार्गकी धूलियोंमें चल रहे हैं, वह व्यक्ति भूलोकमें महापुण्यात्मा है] // 47 // / ब्रवीति मे कि किमियं न जाने सन्देहदोलामवलम्ब्य संवित् / कस्यापि धन्यस्य गृहातिथिस्त्वमलीकसम्भावनयाथवालम् // 18 // प्रवीतीति / इयं मे संवित् बुद्धिः सन्देहमेव दोलामस्मदुहेशेन वा अन्योद्देशेन वा भागतस्त्वमित्येवंरूपामवलम्ब्य आरा किं किं ब्रवीति किमपि किमपि तर्कयतीत्यर्थः / अतो न जाने न निश्चिनोमि / अथवा अलीकसम्भावनया मिथ्यावित. कैणालं तत्साध्यं नास्तीत्यर्थः। अत एव गम्यमानसाधनस्वापेक्षया करणत्वात् तृतीया इति न्यासोद्योतकारः। किन्तु कस्य धन्यस्य ममान्यस्य वा गृहातिथिरसि स्वमेवानुकम्पस्वेत्यर्थः॥४८॥ मेरी बुद्धि सन्देह (ये नल ही हैं, या दूसरा कोई है ? ये मेरे ही उद्देश्यसे यहां आये हैं या दूसरे किसीके उद्देश्यसे आये हैं, इत्यादि अनेक प्रकारके संशय ) रूपी झूलेका अवलम्बन कर अर्थात् उक्तरूपके अनेक सन्देहोंमें पड़कर क्या-क्या कह रही हैं ? यह मैं नहीं जानती। अथवा आप किसी धन्य (महापुण्यात्मा) के अतिथि हैं (पाठा०-आप किस धन्यके अतिथि है ? ), अन्यथा ( आप नल ही है या मेरे ही यहां आये हैं ऐसी) सम्भावना करना व्यर्थ है [ क्योंकि मेरे इतने अधिक पुण्य कहां हैं ? जो आप नल हों या मेरे उद्देश्य में यहां आये हों] // 48 // प्राप्तव तावत् तव रूपसृष्टं निपीय दृष्टिजनुषः फलं मे / अपि अनी नामृतमाद्रियेतां तयोः प्रसादीकुरुषे गिरश्चेत् / / 49 / / 1. 'महीमहेन्द्रमहः' इति पाठान्तरम् / 2. "कस्यासि" इति पाठान्तरम् / 3. "रूपसृष्टिं" इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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