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________________ 408 नैषधमहाकाव्यम्। सेवा की / यह देख ब्रह्मा चन्द्रमापर प्रसन्न हो गये और हर्षसे चन्द्रमाकी दशा अच्छी कर दी। यही कारण है कि जो चन्द्रमा पहले पद्मकान्तिको रात्रिमें उसके मुकुलित हो जानेसे नहीं प्राप्त करता था, उस पद्मकान्तिको पानेका सौभाग्य प्राप्त कर लिया है, वे पद्म दमयन्तीके चरण ही हैं / अन्य भी किसी व्यक्तिपर जगत्सृष्टि-कर्ता ब्रह्मा प्रसन्न होते हैं तो उसकी अच्छी दशा कर देते हैं और उस व्यक्तिको सद्भाग्य प्राप्त हो जाता है / दमयन्तीके चरण-नख चन्द्रतुल्य तथा चरण अरुण पद्मतुल्य हैं ] // 105 // यशः पदान्गुष्ठनखौ मुख बिभर्ति पूर्णेन्दुचतुष्टयं या / कला चतुःषष्टिरुपैतु वासं तस्यां कथं सुध्रुवि नाम नास्याम् // 10 // यश इति / या सुभ्रर्यशः कीर्तिः पदाङ्गुष्ठयोनखौ मुखश्चेति पूर्णेन्दुचतुष्टयं बिभ. ति / तस्यामस्यां सुभ्रुवि सुन्दयां कलाना, षोडशभागानां विधानां च चतुरुत्तरा परिः चतुःषष्टिः वासं निवासं कथं नाम नोपैतु उपत्वेवेत्यर्थः / चन्द्रचतुष्टये प्रतिचन्द्र षोडशकलस्वाचतुःषष्टिकलासम्पत्तिरित्यर्थः / द्वयीनामपि कलानामभेदाध्यवसायेन अयं निर्देशः // 106 // ___ जो दमयन्ती यश, दोनों पैरों ( पाठा०-हाथों ) के अंगूठोंके दो नख तथा मुख--इन चार पूर्ण चन्द्रोंको धारण करती हैं, अतः सुन्दर भ्रवाली इस दमयन्ती में चौसठ कलाएं क्यों नहीं निवास करें। [दमयन्तीका यश, पैरके अंगूठोंके दोनों नख तथा मुख पूर्ण चन्द्ररूप हैं, उन्हें धारण करनेवाली दमयन्तीमें प्रत्येक पूर्ण चन्द्रमामें 16-16 कलाओंके होनेसे (1644 = 64 ) चौंसठ कलाएं दमयन्तीमें अवश्य ही रहती है / दमयन्ती 64 कलाओं में प्रवीण है ] // 106 // सृष्टातिविश्वा विधिनैव तावत्तस्यापि नीतोपरि यौवनेन | वैदग्ध्यमध्याप्य मनोभुवेयमवापिता वाक्पथपारमेव / / 107 / / सृष्टेति / इयं तावत् विधिनैव अतिविश्वा विश्वमतिक्रान्ता विश्वातिशायिनीत्यर्थः / 'अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीययेति समासः। सृष्टा निर्मिता अथ यौवनेन तस्य विधिकृतातिशयस्याप्युपरि नीता ततोऽप्यतिशयं प्रापितेत्यर्थः / अथ मनोभुवा वेदग्ध्यं प्रागल्भ्यमध्याप्य वाक्पथस्य वाङमार्गस्य पारम्परतीरमवाङ्मनसगांचरत्वमेवावापिता / अत्र क्रमेणैकस्यानेकधर्मसम्बन्धकथनात् एकस्मिार्थवानेकमित्युक्त. लक्षणपर्यायभेदः // 107 // ___पहले तो ब्रह्माने ही इस दमयन्तीको संसारका अतिक्रमण करनेवाली अर्थात् विश्वातिशायिनी सुन्दरी बनाया, (फिर ) युवावस्थाने इसे उस विश्वातिशायि सौन्दर्य के ऊपर पहुँचाया अर्थात् उस विश्वातिशायि सौन्दर्यको और अधिक बढ़ाया, (फिर ) कामदेवने विदग्धता अर्थात् सब विषयों में चतुरताको पढ़ाकर इसे अवर्णनीय ही बना दिया / ( अन्य भी कोई पढ़ा हुआ चतुर व्यक्ति वाममयको अभ्यास कर लेनेपर श्रेष्ठ-श्रेष्ठ शिक्षकोंको .....
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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