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________________ 18 नैषधमहाकाव्यम् / अवश्य ही किया। [अत्यधिक सजयावाको वस्तुओं को गिनते समय विस्मरण नहीं होने के लिए रेखाओं द्वारा गिनना तथा अमावसूचक स्थानों पर गोगकार शून्यविन्दुओंको रखना कम्पबहार में भी देखा जाता है। अतएव नकके शरीरमें ये रोम नहीं है, किन्तु हन नसके गुण है तथा ये रोमकूप नहीं हैं, किन्तु दोषामावसूचक शूल्य-विन्दु हैं। नको बहुसङ्कयक गुग थे तथा दोष कोई मो नहीं था। 'तिस्रः कोटयोऽद्धकोटी च यानि रोमाणि मानुषे / ' इस वचनके अनुसार मानव-शरीरमें साढ़े तीन करोड़ रोम होते हैं तथा 'रोमैककं कुपके पार्थिवानाम्' इस कपनके अनुसार रामाका प्रत्येक रोम एक-एक रोमकूप में होता है] // 21 // अमुष्य दोामरिदुर्गलुण्ठने ध्रुवं गृहीतार्गलदीर्घपीनता / उरःमिया तत्र च गोपुरस्फुरत्कवा'टदुर्धर्षतिर प्रसारिता / / 22 // अमुध्येति / अमुष्य नलस्प दोम्यो भुजाभ्यां कर्तृभ्याम परिदुर्गलुण्ठने शत्रुदुर्गमाने अर्गलस्म कपाटविष्कम्मदारूविशेषस्य 'तविकम्भोऽर्गलं न ना' इत्यमरः / दीर्घश पीना तयोर्भावः दोघंपीनता भापतपीवरस्वमित्यर्थः, किति पार्थः / उरसा वासः श्रिया लपया को तत्र अरिदुर्गलुण्ठने गोपुरेषु पुरद्वारेषु 'पुरद्वारन्तु गोपु. रमियमरः / स्फुरता राजता कवाटानां दुर्द्धर्षागि च तानि तिम्प्रसारीणि च तेषां भावः तता असण्यस्वं तिय्यंकप्रसारिवश्वेयर्थः / गृहोता ध्रुवम् भवम्बिता किम् ? प्रवमित्युस्प्रेचाम्पाकम् / तदुदपणे 'मन्ये शके ध्र प्रायो नूनमित्येवमादयः। उस्प्रेक्षाग्पाकाः शम्दा इव शब्दोऽपि ताशः' इति / दीर्घबाहुः कवाटवजावाय. मिति भावः // 22 // इस (न) के बाहुपने शत्रुओंके दुर्गों (किलों ) को लूटनेमें मानो भाग: (विवाड़की किही ) को विशान्ता तथा स्थूलताको प्राप्त कर लिया तथा वक्षःस्थलको शोमाने मानो (धुओंके ) नगरद्वारपर स्फुरित होते हुए किवाड़ को दुधर्षता एवं विशालता को प्राप्त कर दिया। [ नसके पाइदय भागमके समान लम्बे एवं मोटे थे तथा छाती किवाड़के समान विशड चौड़ी एवं कठोर थी। इससे नकका भावानुबाहु एवं विशाल वक्षस्थळ वाण होना सूचित होता है ] // 22 // स्वकेनिलेशस्मितनिर्जितेन्दुनो निजांशहक्तर्जितपनसम्पदः / अतद्वयोजित्वरसुन्दरान्तरे न तन्मुखस्य प्रतिमा चराघरे / / 23 / / स्वकलोति / स्वस्य केलिगेशः विलासबिन्दुयंत् स्मितं मन्दासितं तेन निन्दितः तिरस्कृतः इन्दुमन्द्रः येन तमोकस्प स्मितरूपकिरणेन निर्मितशीतांएमयूजस्येति भाषः निर्माणस्वावयवःयारक नेनं तया तर्षिता निभरिसता पमानां सम्पद सौभाग्यं १.'-कपार-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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