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________________ सप्तमः सर्गः। 393 याचक है अर्थात् कामुक होनेसे स्वर्गाप्सराओंको छोड़कर मर्दन करना चाहता है (पक्षा०महायनिक होकर भी जिनसे याचना करता अर्थात् भिक्षा मांगता है ), उनकी समता फूटी कौड़ीकी भी नहीं पानेवाला सम्पूर्ण श्रीफल (बेल ) करे तो वह पागल है / अथवा-जिसकी मुठीमें...."याचना है, उनकी समता यदि उन्मादित करनेवाला अर्थात् पका हुआ सम्पूर्ण श्रीफल भी करे तो वह ( श्रीफल ) फूटी कौड़ी (लक्षणासे स्तनशोभाका लेशमात्र) भी नहीं पावे। [ दो स्तनोंकी समता पके हुए सम्पूर्ण (बहुत-से) बिल्वफल भी नहीं कर सकते तो फिर एक बिल्वफल कैसे कर सकता है ? अथवा-जिन स्तनोंको स्वर्गकी अप्सराओंको त्यागकर वज्रधारी इन्द्र या महाधनिक कोई अरबपति चाहता है, उसे एक निर्धन व्यक्ति चाहे तो अवश्य ही वह पागल समझा जावेगा / पके हुए विल्वफलसे भी सुन्दर सरस तथा 'स्तनातटे चन्दनपड्कुिलेऽस्या जातस्य यावद्युवमानसानाम् / हारावलीरत्नमयूखधाराकाराः स्फुरन्ति स्खलनस्य रेखाः / / 80 // स्तनेति / चन्दनेन पङ्किले पङ्कवति / "पिच्छादिस्वादिलच्"। अस्याः स्तनयोः अतटे प्रपाते / 'प्रपातस्त्वतटो भृगुः' इत्यमरः / जातस्य यावन्ति युवमानसानि तेषां सर्वेषां सम्बन्धिनः साकल्यार्थस्य यावच्छब्दस्य विशेषणसमासः। स्खलनस्य रेखा गमनमार्गा हारावलीरत्नानां मयूखधारा रश्मिपङक्तयः एवाकारा यासां ताः सत्यः स्फुरन्ति रत्नमयूखधारासु युवमानसस्खलनरेखाङ्कत्वमुच्यते // 80 // चन्दनसे पंकिल (कीचड़युक्त ) इस दमयन्तीके स्तनरूप अतट (प्रपात-झरनेके पानी गिरनेका बीहड़ मार्ग ) में सम्पूर्ण तरुणोंके मनके स्खलित होनेकी रेखाएं अर्थात् चिह 'दमयन्तीके) हारोंके रत्नोंकी किरणोंकी धारारूपमें स्फुरित हो रही हैं। [दमयन्तीके तन मानों एक पर्वत है, यह निरन्तर सौन्दर्यजलके बहते रहनेसे चन्दनलेपरूपी कीचड़से यक्त होकर पिच्छिल ( फिसलने योग्य स्थान ) हो रहा है, अतः वहां उसे देखकर सभी वरुण पुरुषोंका चित्त आकृष्ट होता है ( उसे मर्दनादिद्वारा भोग करना चाहता है) किन्तु वहांसे स्खलित हो जाता है (ठहरता नहीं, विछला (रपट ) कर गिर पड़ता है ), उसीके स्खलित होनेके चिह्नरूप ये हारके रत्नोंकी किरण-धारायें हैं / अन्यत्र भी ऊँचे स्थानसे कोई गिरता हैं तो उसके गिरनेके चिह्न पड़ जाते हैं। पाठभेदसे-चन्दनसे पदिल..... स्तनरूपी गढेमें...... / शेष अर्थ - पूर्ववत् है। दमयन्तीके स्तनोंको देखकर सभी तरुण पुरुष उसे पाना चाहते हैं, किन्तु किसीको वहां स्थान नहीं मिलता है ] // 80 / / क्षीणेन मण्येऽपि सतोदरेण यत् प्राप्यते नाक्रमणं बलिभ्यः / सर्वाङ्गशुद्धौ तदनणराज्ये विजृम्भितं भीमभुवीह चित्रम् / / 81 // .. "स्तनावटे" इति पाठान्तरम् / 2. "तदनगराज्यविजृम्भितम्" इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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