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________________ 360 नेपषमहाकाम्बम् / गलकीग ( के समय ) में भ्रमररूपी नेत्रोंसे देखी या मालूम की हुई दमयन्तीमुखको शोमा को कमलरूप ( पक्षा०-कमलतुल्य ) हाथको फैलाकर (दमयन्तीसे) मांग रही है ( अथवा............ पसार कर सूर्य से मांग रही है कि-'भाप दमयन्तीके मुख की शोभा हमलोगों को दें। पतिसे मांगी हुई वस्तु सरलतासे मिल जाती है, [कमलिनियों का पति सूर्य है, उनके प्रति कामुकी कमलिनियोंने अपने भ्रमररूप नेत्रोंसे जलकीरगके समय दमयन्तीके मुख की शोभाको देखकर उसे अत्यन्त सुन्दर होनेसे कमलरूप हाथ फैलाकर दमयन्तीसे याचना करती है कि-'हे दमयन्ती ! तुम अपने मुखकी शोमाको मुझ दो, जिसके द्वारा हमलोग अपने पति सूर्यको प्रसन्न ( अपनी ओर आकृष्ट ) कर सकें। अन्य भी कोई व्यक्ति अपने पास सुन्दर बस्तु नहीं रहनेपर दूसरे से मांगकर अपने को भूषित एवं पतिको आकृष्ट करता है।कीग-समयमें मांगी हुई वस्तु सरलतासे प्राप्त हो जाती है। दमयन्तीकी मुखशोभा कमलिनीसमूए से भी अधिक सुन्दर है / / 57 // अस्या मुखेनैव विलित्य नित्यस्पर्धी मिलहमरोषमासा / प्रसन्न चन्द्रः खलु नसमानः स्यादेव तिष्ठम् परिवेषपाशः / / 58 / / अस्या इति / निस्पं स्पर्धत इति निस्यस्पर्षी चना मिलती ज्याप्नुवन्ती कुहम मेष रोषभाः क्रोधप्रभा पस्प तेन / अस्या मुखेनैव विजिस्व प्रसाबहारकृस्य नय. मानो बध्यमानः तिछन् परिवेष एव पाशो बन्धनप्रग्रहो यस्य स स्यादेवेत्युरमेला // (उबटन या लेपके समय ) लगाये गये कुडमरूप क्रोधकान्तिवाले दमयन्तीके मुखके साथ सर्वदा स्पर्श करनेवाला चन्द्रमा बलात् बांधा जाता हुआ अर्थात् बाँधा गया परिवेष रूप (चन्द्रमाके चारों ओर दिखलायी पड़ने वाला गोलाकार घेरा) पाश (जाल या रस्सी) युक्त ( जालते बंधा हुआ ) रहता ही है / [ जिस प्रकार बलवानके साथ स्पर्धा करनेवाले दुर्बल व्यक्तिको वह बलवान् व्यक्ति क्रोधसे लाल 2 मुखकर उसे जोत कर रस्सीमें बांध देता है और वह बँधा हुआ पड़ा रहता है, उसी प्रकार अधिक शोभावाले दमयन्तीके मुखके साथ स्पर्धा करनेवाले चन्द्रमाको उस मुखने परिवेषरूप रस्सीसे बांधकर छोड़ दिया है ] / / 58 // विधोविधिषिम्बशतानि लोपं लोपं कुहूरात्रिषु मासि मासि | अभङ्गारश्रीकममुं किमस्या मुखेन्दुमस्थापयदेकशेषम || 5 || विधोरिति / विधिर्विधाता विधोश्चन्द्रस्य बिम्बशतानि मासि मासि मासे मासे "पहन्" इत्यादिना मासशब्दस्य मासिस्यमादेशः / कुहुरात्रिषु नष्टचन्द्ररात्रिषु लोपं लोपं लुप्त्वा लुप्स्वा आभीण्ये "णमुल " इति गमुलप्रत्ययः आभीषण्ये हे भवत इति वक्तव्यम् / “आभीषण्यं पौनःपुन्यम्" इति काशिका। अभङ्गुर श्रीकमनश्वरशोभं, "शेषाद्विभाषा" इति कप / अमुमस्या मुखेन्दुम् / एकशेषमेकमेव शिष्यमाणमस्थापयत् स्थापितवान् / किमित्युस्प्रेक्षा। ज्याकरणे सरूपाणामेकशेष. बदिति भावः // 59 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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