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________________ सप्तमः सर्गः। 366 होना उचित ही है / अथवा-बिम्बफल सुधोत्पन्न नहीं होनेसे मुखचन्द्रमें स्थित सुधाखनि अधरोष्ठके समान कदापि नहीं हो सकता है। ('तो फिर अधरोष्ठ का सादृश्य कहां मिलेगा' इस शङ्काको दूर करनेके लिये कहते हैं)। अथवा-बिम्बफलकी शोभा वृक्षके आश्रय करनेवाले (लता) स्थानमें हैं बिम्बफल सुधोत्पन्न होनेपर भी वृक्षदेशस्थ होनेसे मुखचन्दस्थ अधर की शोभा नहीं कर सकता और विद्रुम अर्थात मूगेमें (पक्षा०-वृक्षहीन स्थानमें) इसके अधरोष्ठकी शोभा होना सम्भव है, पर यह भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रवाल अर्थात् मूगा वृक्ष रहित स्थानमें उत्पन्न होनेके कारण अधरोष्ठके सदृश होनेपर भी सुधोत्पन्न नहीं होनेसे अधरोष्ठके सदृश नहीं हो सकता। दमयन्ती का अधर बिम्बफल तथा मूगेसे भी अत्यन्त सुन्दर है ] // 38 // जानेऽतिरागादिदमेव विम्बं बिम्बस्य च व्यक्तमितोऽधरत्वम् / द्वयोविशेषावगमाक्षमाणां नाम्नि भ्रमोऽभूदनयोजनानाम् / / 36 / / जान इति / अतिरागादतिलौहित्याखेतोः इदं पुरोवत्येव बिम्बं बिम्बनामाह बिम्बस्य च इतोऽस्मादधरत्वमपकृष्टत्वमोष्ठत्वं च व्यक्तं तदेवाधरनामाहं प्रतीयत इत्यर्थः / एवं स्थिते द्वयोरनयोरधरबिम्बयोर्नाम्नो विषये विशेषावगमे इदमस्य नामेति निर्धारणे अक्षमाणामसमर्थानां जनानां भ्रमोऽभूत् / जाने जानामीत्युत्प्रेक्षा। अत्यधिक लालिमा होनेसे यही ( दमयन्तीका पुरीदृश्यमान ओष्ठ हो) बिम्बफल है, बिम्बफल का इससे अर्थात् इस दमयन्तीके ओष्ठसे (दमयन्तीके ओष्ठकी अपेक्षा लालिमा कम होनेसे ) अधरत्व ( नीचापन ) अर्थात् हीनता स्पष्ट है / इन दोनों (दमयन्तीका ओष्ठ और निम्बफल) के विशेष की जाननेमें असमर्थ या मुग्ध लोगोंको नाममें भ्रम हो गया है / ( अथवा-विशेषको जाननेमें असमर्थ लोगोंको इन दोनोंके नाममें भ्रम हो गया।) [ यह नियम है कि उपमान और उपमेयमें उपमान अधिक गुण तथा उपमेय कम गुणबाले होते हैं, अतः अधिक लालिमा होनेसे दमयन्तीके ओष्ठको उपमान एवं कम लालिमा होनेसे बिग्बफल उपमेय होना उचित है, किन्तु दोनोंके गुणों के तारतम्य नहीं समझने वाले लोगोंने दमयन्ती के ओष्ठको उपमेय मानकर अधर (बिम्बफलसे हीन ) और बिम्बफलको उपमान मान लिया; बस, यही कारण है कि लोकमें भी दमयन्ती का ओष्ठ 'अधर' कहलाने लगा / वस्तुतः में दमयन्तीके ओष्ठमें बिम्बफलसे भी अधिक राग (लालिमा, पक्षा०-अनुराग) है ] // 39 // ! मध्योपकण्ठावधरोष्ठभागौ भातः किमप्युच्छचसितो यदस्याः। तत्स्वप्नसंभोगवितीर्णदन्तदंशेन कि वा न मयापराद्धम् // 40 // मध्येति / यद्यस्मात् , अस्याः सम्बन्धिनी मध्यस्याधरमध्यप्रदेशस्य उपकण्ठौ सन्निहितौ अधरोष्ठस्य भागौ तदुभयपार्वे इत्यर्थः। किमप्युच्छ्रुसितौ किंचिदु. च्छूनौ भातः स्फुरतः / तत्तस्मात् , स्वप्नसम्भोगे वितीर्णो दत्तो दन्तदंशो दन्तक्षतं येन तेन मया नापराद्धं किं वा / स्वप्ने स्वकृतदन्तक्षतमेतदित्युत्प्रेक्षा // 40 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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