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________________ 264 नैषधमहाकाव्यम् / पुष्पवाण (कामदेव ) ने तीन वाणोंसे ही तीनों लोकोंको जीव लेनेसे शेष बचे हुए दो बाणोंको प्रिया दमयन्तीके नेत्रकमलके पद पर अभिषिक्त कर सफल किया है / [ कामदेवने तीन बाणोंसे तीन लोकों पर विजय पाकर शेष दो बाणों की व्यर्थता का निवारण करने के लिये उन्हें प्रियाके नेत्रेकमलपदपर प्रतिष्ठितकर सार्थक किया और तीन बाणोंसे तीनों लोकों पर विजय पाने की अपेक्षा दमयन्तीके नेत्र बने हुए दो बाणोंसे ही तीनों लोकोंपर विजय पाना इनकी अधिक सफलता है ] // 27 // सेयं मृदुः कोसुमचापयष्टिः स्मरस्य मुष्टिग्रहणाहमध्या / तनोति नः श्रीमदपाङ्गमुका मोहाय या दृष्टिशरोघवृष्टिम || 2 || सेयमिति / मृदुः कोमला मुष्टिग्रहणाहं हस्तेन ग्राह्य मध्यमवलग्नं लस्तकंच यस्यास्सा सेयं दमयन्ती स्मरस्य कौसुमी कुसुममयी चापयष्टिधनुदण्ड इत्युत्प्रेक्षा। कुतः ? येयं नोऽस्माकं मोहाय मूच्र्छनाय श्रीमतः शोभनादपाङ्गान्मुक्तां दृष्टीनामेव शराणामोघस्य वृष्टिं तनोति करोति, सा कथं न कामचापयष्टिरिति भावः // 28 // मध्यमें मुट्ठीसे ग्रहण करने योग्य अर्थात् अतिशय कृश कटिवाली (धनुषपक्षमें-मुट्ठीसे ग्रहण करने योग्य मध्य भागवाली ) कोमल (कोमलाङ्गी, धनुषपक्षमें-झुकनेवाली होनेसे नम्र ) कामदेवकी धनुर्लता है, जो यह ( दमयन्ती पक्षा०-धनुर्लता) हम लोगोंको मोहित करने के लिए शोमा-सम्पन्न नेत्रप्रान्तसे दृष्टि ( कटाक्ष ) रूपी बाण समूहोंकी वृष्टिको विस्तृत कर रही है। [ जैसे कामदेवकी मध्यमें पतली मुट्ठीसे ग्राम नम्र धनुर्लता पुष्पवा!की वर्षा कामियोंको मोहित करने के लिये करती है, उसी प्रकार कृश कटिवाली मृदु यह दम. यन्ती हमलोगोंको मोहित करने के लिए कटाक्ष वर्षा कर रही है ] // 28 // आपूर्णितं पदमलक्षिपद्म प्रान्तद्युतिश्वत्यजितामृतांशु / अम्या इवास्याश्चदिन्द्रनीलगोलामलश्यामलतारतारम् || 29 / / आपूर्णितमिति / आधुणितं प्रचलित पक्ष्मलं पक्ष्मवत् / "सिध्मादिभ्यश्च" इति लच / प्रान्तद्युतेः कनीनिकाप्रान्तकान्तेः, श्वैत्येन धावल्येन जितामृतांशु अवधीरितचन्द्रं चलत् इन्द्रनीलस्य गोलं मण्डलमिवामला श्यामला तारा स्थूला तारा कनीनिका यस्य तदस्या अक्षिपद्ममस्या अक्षिपद्ममिव असदृशमित्यर्थः / अनन्वयालङ्कारः / 'एकस्यैवोपमानोपमेयत्वेनानन्वयो मतः' इति लक्षणात् // 29 // ___ घुरता हुआ, श्रेष्ठ बरौनियोंसे युक्त, किनारे की शोभाकी वेतिमासे अमृतकिरण ( चन्द्रमा ) को जीतनेवाला और चञ्चल इन्द्रनील मणिके समान गोल निर्मल श्यामवर्ण बड़ी पुतलीवाला इस दमयन्ती का नेत्रकमल इस ( दमयन्तीके नेत्र कमल ) के समान है अर्थात् उक्त मुखवाले दमयन्तीके नेत्रकमलको उपमा संसारमें कहीं नहीं है // 29 // कर्णोत्पलेनापि मुखं सनाथं लभेत नेत्रद्युतिनिर्जितेन / यद्येतदीयेन ततः कृतार्था स्वचक्षुषी किं कुरुते कुरङ्गी / / 30 / /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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