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________________ 354 नैषधमहाकाव्यम् / अच्छी तरह पकडकर बहुत विलम्ब तक रुकी रही। [ जिस प्रकार कोई व्यक्ति चाकपर घूमते-घूमते वहांसे गिरता है तो किसी खम्भे आदिको हाथसे देर तक अच्छी तरह पकड़े रहता है, वैसे ही नलकी दृष्टिने किया। नल दमयन्तीका नितम्ब देखनेके बाद विलम्बतक दमयन्तीका केलेके खम्भोंके समान सुन्दर ऊरुओंको देखते रहे ] // 7 // पासः परं नत्रमहं न नत्र किमु त्वमालिङ्गय तन्मयापि / उरोनितम्बोरु कुरु प्रसादमितीव सा तत्पदयो: पपात // 8 // वास इति / हे भैमि, वासः परं वस्त्रमेव नेत्रम् आच्छादनम्, अहं नेत्रं न इति काकुः, नास्मि किमु अस्म्येवेत्यर्थः। 'नेत्रं पथि गुणे वस्त्रे तरुमले विलोचने' इति विश्वः / तत् तस्मात् नेत्रत्वाविशेषावं मया अपि, उरश्च नितम्बश्च उरू च तेषां समाहारः उरोनितम्बोरु / प्राण्यगत्वाद् द्वन्द्वकवद्भावः / तदालिङ्गन्याश्लेषय प्रसादमा. लिङ्गनानुग्रहं कुरु इतीव इति मनीषयेवेत्युप्रेक्षा / सा नलडष्टिस्तस्याः भैम्याः पदयोः पपात पदे अपि ददशेत्यर्थः॥८॥ (हे दमयन्ति ! केवल वस्त्र ही 'नेत्र' हैं, मैं नेत्र नहीं हूँ क्या अर्थात् मैं भी 'नेत्र' हूं, इस कारण मुझे ( नयन-वाचक 'नेत्र' को) भी वस्त्र-वाचक 'नेत्र के समान ) छाती, नितम्ब और ऊरुका आलिङ्गन करावो ( या प्रत्यक्ष दिखलावो ) मानो इस प्रकार कहती हुई नल-दृष्टि दमयन्तीके चरणोंपर गिर पड़ी। [ जैसे अन्य कोई व्यक्ति अपने समकक्ष व्यक्तिके समान स्थान पाने के लिये राजा आदि श्रेष्ठ अधिकारीके चरणोंपर गिरता है, वैसे नलदृष्टिने भी किया / नलकी दृष्टि भयन्तीकी छाती, नितम्ब और ऊरुको देखनेके बाद पैरों पर पड़ी] // 8 // शोयेथाकाममथोपहत्य स प्रयसीमालिकुल च तस्याः / इद प्रमोदाद्भुतसभृतेन महीमहेन्द्रो मनसा जगाद // 6 // दृशोरिति / अथ महीमहेन्द्रस्स नलो हशोः स्वाचणोः प्रेयसी भैमी, तस्या आलिकुलं सखीवर्ग च यथाकाममुपहृत्योपहारीकृत्य यथेच्छं दृष्ट्वेत्यर्थः / प्रमोदा. भुताभ्यामानन्दविस्मयाभ्यां संभृतेन पूर्णेन मनसा इदं वक्ष्यमाणं जगाद स्वगतमुवाचेत्यर्थः // 9 // ___ इसके वाद महीपति नल प्रिया दमयन्ती तथा उसके सखी-सनुदायको अच्छी तरह देखकर हर्ष नथा आश्चर्य से परिपूर्ण मनसे यह कहने अर्थात् विचारने लगे / / 9 // पदे विधातुर्याद मन्मथा वा ममाभिषिच्येत मनोरथा वा। तदा घटेतापि न वा तदेतत्प्रतिप्रतीकाद्भुतरूपशिल्पम् / / 10 / पद इति / विधातुः पदे ब्रह्मणः स्थाने, मन्मथो वा मम मनोरथो वा अभिषिज्येत यदि तदा तत्प्रसिद्धम् एतत् पुरोवर्ति प्रतिप्रतीकं प्रत्यवयद अद्भुतं रूपशि.
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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