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________________ 348 नैषधमहाकाव्यम् / पाण्डित्यपूर्ण वचनको सुनकर कोई समझदार व्यक्ति आश्चर्यसे चकित होकर सिर हिलाने लगता है, उसी प्रकार ( दमयन्तीके पाण्डित्य-पूर्ण वचनको सुनकर 'अरे ! यह दमयन्ती तो बृहस्पतिके समान या उनसे भी अधिक पाण्डित्यपूर्ण बात कह रही है' ऐसा विचार आनेके कारण) दूती भी सिर हिला रही थी ] // 108 // परेतभतुमेनसैव दूती नभस्वतेवानिलसख्यभाजः / त्रिस्रोतसवाम्बुपतेस्तेदाश स्थिरास्थमायातवतीं निरास्थम् / / 106/ परेतेति / मनसैव आकर्षकेणेति शेषः। आगमनसाधनेनेत्यर्थः / एवं वायुगङ्गयो. रपि द्रष्टव्यम् / परेतभर्तुः यमस्य दूतीं, नभस्वता वायुनैव अनिलसख्यभाजोग्ने. दूती बिस्रोतसा गङ्गन्यैव अम्बुपतेर्वरुणस्य दूतीं स्थिरास्थं दृढाभिनिवेशं यथा तथा आशु शीघ्रमायातवती, सती, तदा अगमनक्षण एव निरास्थं पर्यहार्षम् / “अस्यति. वक्तिख्यातिभ्योऽ" इत्यस्यतेलुङि च्लेरङादेशः / 'अस्यतेस्थुक्' इति थुक् / यमा. दिदूत्यो दूरादेव निरस्ताः इन्द्रगौरवात्त्वया एतावन्तं काल समभाषीत्यर्थः / अत्र मनोवायुगङ्गानां क्रमाद्यमादिविधेयत्वेन तप्रियाथ ताभिरेवातिवेगवतीभिरत्र आनीता (यमादीनां दूत्यः) इत्युत्प्रेक्षार्थः // 109 // क्रमशः मन, वायु तथा गङ्गासे ('दमयन्तीको हम अवश्य अपने पक्षमें कर लेंगी' ऐसे) दृढ विश्वासपूर्वक आई हुई यम, अग्नि तथा वरुणके दूतियोंको शीघ्र ही मना कर दिया। [ अथवा-"दृढ़ विश्वासपूर्वक शीघ्र आई हुई... "दूतियोंको मना कर दिया। अथवा(नलमें दृढ़ आस्था करके मैंने ) उक्त दूतियोंको शीघ्र मना कर दिया। अथवा- मैने दृढ. विश्वासपूर्वक यमकी दूतीको मानो मनसे, अग्निकी दूतीकी मानो वायुसे तधा वरुणकी दूती को मानो गङ्गासे मना कर दिया है / [ परेवडिया प्राणहर्ता होनेसे प्राणके मनोऽधीन होनेसे हम-दूतीका मनरूपी वाहनसे आना अग्निके वायु-मित्र हीनेसे अग्नि-दूतीका वायुरूपी वाहनसे आना तथा वरुणके जलाधीश होनेसे वरुण-दूतीका गङ्गा-प्रवाहसे आना ( यमदूतीका मनोवेगसे, अग्निदूतीका वायुवेगसे तथा वरुणदूतीका गङ्गा-प्रवाह-वेगसे अत्यन्त शीघ्र आना प्रतीप होता है ) कार्यकी शीघ्रताके कारण उचित ही है। प्रकृतमें इन्द्रदूतोसे दमयन्तीका यह कहना है कि मैंने बहुत आशा लेकर आयी हुई यमादिकी दूतियों को पहले शीघ्र ही मना कर दिया, केवल देवराज इन्द्र के गौरवके कारण ( अनुरागके कारण नहीं ) तुमसे इन्द्रका सन्देश सुनकर तुम्हें मना कर रही हूं, अतः तुम्हें या इन्द्रको मनमें खेद नहीं करना चाहिये] // 109 // भूयोऽर्थमेनं याद मां त्वमात्थ तदा पदावालभसे मघोनः / सतीव्रतस्तीवमिमंत मन्तमन्तः परं वञिणि माजितास्मि ||110|| भूय इति / हे शक्रदूति ! त्वं भूयः पुनरेनमर्थमिन्द्रं वृणीष्वेत्यमुमर्थ मामात्थ 1. "त्वदाशु" इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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