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________________ 138 नैषधमहाकाव्यम् / तो फिर दूसरे कैसे जान सकते है अतः इन्द्रकी महिमा बहुत बड़ी है ) / मनुष्यों के हृदयसाक्षी (मानव हृदयकी समस्त बातको जानेवाले अर्थात् अन्तर्यामी ) उस इन्द्रको, नहीं जाननेवालेको बतलानेवाला मेरा उत्तर व्यर्थ है / [ महामहिमशाली तथा सर्वान्तर्यामी इन्द्रसे मुझे कोई उत्तर देना व्यर्थ है, क्योंकि 'मेरा हृदय नलासक्त है, इस बातको जानते है] // 11 // आज्ञां तदीयामनु कस्य नाम नकारपारुष्यमुपेतु जिह्वा / प्रह्वा तु तां मूर्ध्नि निधाय मालां बालापराध्यामि विशेषवाग्भिः / / 12 / / तयाप्यविनयपरिहाराय किचिद्विज्ञापयामीत्याह-अज्ञामिति / तदीयामैन्द्री. माज्ञामनु तामुद्दिश्य कस्य नाम जिह्वा नकारो नजुच्चारणमेव पारुष्यमुपैतु प्रतिषेध. रोच्यं भजेत् / न कोऽपि तदाज्ञोलधनसाहसिकोऽस्तीत्यर्थः। किन्तु बालाशिशुरहं प्रह्वा नम्रा सती तामाज्ञामेव मालां मूनि निधाय, विशेषवाग्भिरतिवाग्भिरपराध्यामि अपराधं करोमि / स च बालचापलात् सोढव्य इत्यर्थः // 92 // उन इन्द्रकी आशाको लक्ष्यकर किसकी जिह्वा निषेध करने ( 'नहीं कहने की परुषता करेगी अर्थात् कोई भी उनकी आज्ञाको अस्वीकार नहीं करेगा। बाला मैं नम्र होकर उनकी मालाको शिरसे लगाकर ( नमस्कार का विशेष वचनोंसे अपराध कर रही हूँ [ अतः बालक समझकर इन्द्रभगवान् मुझे क्षमा करेंगे ] / / 92 / / तपःफलत्वेन हरेकपेयमिमं तपस्येव जनं नियुक्क्ते / भवत्युपायं प्रति हि प्रवृत्तावुपेयमाधुर्यमधैर्यसजि' | // 13 // तप इति / तपःफलत्वेन इन्द्रोपासनरूपस्य तपसः फलस्वनोपलक्षिता फलभूते. स्यर्थः / इयं मत्परिजिघृक्षारूपा कृपा हरेरिन्द्रस्य / इमं जनं मां तपस्येव पुनरपीन्द्रो. पासनायामेव नियुङक्ते प्रेरयति / "स्वराधन्तोपसृष्टादिति वक्तव्यम्" इत्यात्मनेपदम् / ननु महदेतत्फलं प्राप्तं किं तपसेत्याशंक्य, सत्यम्, तदेव स्वादु कर्तुमित्याहभवतीति / हि यस्मादुपायं प्रति प्रवृत्तौ साधनगोचरप्रवृत्तौ विषये उपेयस्य साध्यस्य माधुर्य स्वादुत्वमेव, अधैर्यमस्थैर्य सजयति कारयतीत्यधैर्यसज्जि भवति / पुनः साधनप्रवृत्तिचापलं कारयतीत्यर्थः / सिद्धान्नस्योपस्कार =(उपदंश) प्रवृत्तिकल्पेयं प्रवृत्तिरिति भावः // 93 // तपके फलसे परिणत इन्द्रको यह कृपा इस जन (मुझ ) को गिर तपमें ही नियुक्त कर रही हैं / प्राप्त करने योग्य ( फल ) की श्रेष्ठता उपाय करने के लिये प्रवृत्त होनेमें अधैर्य कर देता है / [ पूर्वजन्ममें की हुई इन्द्रोपासानारूप तपस्याका फल है कि इन्द्र मुझे चाह रहे हैं, अतः उनकी यह कृपा मुझे पुनः इन्द्रोपासना करने के लिये प्रेरित कर रही है कि मैं पुनः किये हुये इस तपके फल-स्वरूप नलको प्राप्त कर सकूँ, क्योंकि श्रेष्ठ फलको पाने के 1. “अधैर्यसर्जि" "अधैर्यकारि" इति पारतरे।
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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