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________________ 322 नैषधमहाकाव्यम् / चन्द्राभमानं तिलकं दधाना तद्वमिजास्येन्दुकृतानुषिम्बम् / सखीमुखे 'चन्द्रसखे ससर्ज चन्द्रानवस्थामिव कापि यत्र / / 62 // चन्द्रामिति / यत्र सभायां, कापि कान्ता, चन्द्राभं चन्द्रनिभं, आभ्रमभ्रविकारं तिलक चन्द्रसखे सखीमुखे तद्वता आभ्रतिलकवता, निजास्येन्दुना कृतमनुबिम्बं यस्मिन् कर्मणि तद्यथा भवति तथा दधाना रचयन्ती चन्द्रानवस्थां ससर्ज. वेत्युत्प्रेक्षा / अत्र तिलकक्रियोत्पत्तौ स्वच्छद्रव्यतया परस्पराभिमुखावस्थितदर्पणव. दितरेतराभूतिलकसंक्रान्तेरितरेतरतिलकचन्द्र परम्परानन्तत्वादनवस्थाक्रियानिष्पत्तिश्चेति भावः // 62 // ___एक सखी चन्द्रतुल्य सखीके मुखमें 'अभ्र' नामक अतिशय निर्मल द्रवद्रव्यसे चन्द्रके समान तिलक कर रही थी, और उस अभ्रनामक द्रवद्रव्यके तिलकसे युक्त चन्द्र समान उक्त (तिलक करनेवाली ) का मुख प्रतिबिम्बित हो रहा था, इस प्रकार बहुतसे चन्द्रमाके हो जानेसे जिस दमयन्ती-सभामें तिलक करनेवाले सखीने चन्द्रमाकी अनवस्था (अनादर, या असंख्यता, या दुर्दशा ) कर दी। [तिलक करनेवाली सखीका मुखचन्द्र तथा चन्द्रतुल्य तिलक ये दो चन्द्र हुए, जिसके मुखचन्द्र में चन्द्रतिलक करती थी, उसका मुखचन्द्र तथा चन्द्रतुल्य तिलक-ये भी दो चन्द्र हुए, दोनों सखियोंके उक्त दो-दो चन्द्र एक दूसरेमें प्रतिबिम्बित होनेसे प्रथम सखीका मुखचन्द्र तथा चन्द्रतुल्यतिलक दूसरी सखीके मुखचन्द्रमें तथा चन्द्रतुल्य तिलकमें प्रतिबिम्बित हुआ, तथा उसी प्रकार उस द्वितीय सखीके भी वे सब चन्द्र पहली सखीके मुखचन्द्र तथा चन्द्रतुल्य तिलकमें प्रतिबिम्बत हुए। (इस प्रकार होनेसे) उस सखीने अनेक चन्द्रकी उस दमयन्ती-समामें उपस्थित कर चन्द्रमाकी अनवस्था कर दी / जहाँपर कोई वस्तु अधिक प्राप्त होती है, उसका उतना आदर नहीं होता, जितना आदर एक वस्तुका होता है / सब सखियोंका मुख चन्द्रमाके समान था ] / / 62 / / दलोदरे काञ्चनकतकस्य क्षणान्मषोभावुकवर्ण रेखम् / तस्यैव यत्र स्वमनङ्गलेखं लिलेख भैमी नखलेखिनीभिः / / 63 / / दलेति // यत्र सभायां, भमी, काञ्चनकैतकस्य स्वर्णकेतकीकुसुमस्य, दलोदरे पत्रमध्ये, क्षणात् झटिति मषीभावुकाः श्यामीभवन्त्यः, वर्णरेखा अक्षरविन्यासा यस्मिन् तम् / तस्य नलस्यैव कृते स्वं स्वकीयम्, अनङ्गलेखं कामसन्देशं, नखरेव लेखिनीभिः लेखनिकाभिः लिलेख // 63 // ___ जिस सभामें दमयन्तीने, सुवर्णकेतकीके भोतरवाले पत्तेपर नखरूपी कलमसे, क्षणमात्र में स्याही ( के समान काली ) होनेवाली वर्ण-रचना है जिसको ऐसे, नल-सम्बन्धी अपने कामपत्र (पतिके समीप भेजे जानेवाले कामवासनाजन्य प्रेमसूचक पत्र) को लिखा / 1. “चन्द्रसमे" इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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