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________________ प्रथमः सर्गः। इस ( नल ) के द्वारा सत्ययुगमें ( सत्य, अचौर्य, शम, दम रूप, या-तप, दान, यश, शानरूप ) चार चरणोंसे पुण्यके स्थिर किये जाने पर किसने तपश्चर्या को ग्रहण नहीं किया ? अर्थात् समीने तपश्चर्याको ग्रहण किया। ( अधिक क्या ? ) जो एक पैर पर स्थित होकर, अथवा-एक पैरकी कनिष्ठा ( सबसे छोटी ) अङ्गुलिसे पृथ्वीको स्पर्श करता हुआ / अतएव ) दुर्बल अधर्मने भी तपस्विताको ग्रहण किया अर्थात् तपस्वी हो गया। [सत्ययुगमें उत्पन्न राजा नलने पुण्यको चारों चरणोंसे स्थिर कर दिया था, अतः उस समय सभी लोग तपश्चर्या में संलग्न थे। यही नहीं, किन्तु धर्मविरोधी अधर्म भी एक चरणसे पृथ्वीपर वास करता हुआ अतिशय दुर्बल होकर तपस्वी बन गया था। यहां पर सत्ययुगमें धर्मको स्थिति चारों परणोंसे रहने पर भी अधर्मकी स्थिति एक चरणसे रहती है, और वह अधर्म अत्यन्त क्षीण रहता है। लोकमें भी कोई तपस्वी एक चरणसे, या-एक चरणकी कनिष्ठा अङ्गुलिसे पृथ्वीका स्पर्श करता हुआ तपश्चर्या करता है तो वह अत्यन्त दुर्बल हो जाता है / 'अवश्यम्माविमावानां प्रतोकारो भवेद्यदि / प्रतिकुर्युनं किं नूनं नलरामयुधिष्ठिराः॥' इस. वचन में सत्ययुगादिक्रमसे नल, रामचन्द्र तथा युधिष्ठिर का वर्णन होनेसे नलकी स्थिति सत्ययुगमें ही सिद्ध होती है, तथापि कतिपय विद्वान् उनकी स्थिति त्रेतायुगमें मानते हैं, तदनुसार इस श्लोक का अर्थ ऐसा करना चाहिये-इस नल के द्वारा त्रेतायुगमें सुकृति अर्थात धर्मके च.र चरणों दारा स्थित किये जानेपर ... ... / अधवा- त्रेतायुगमें मी चार चरणोंसे स्थितकर धमके सत्य युग किये जानेपर अर्थात त्रेतायुगमें भी सत्य युगके समान धर्मकी स्थिरता करने पर....... | प्रथम अर्थ पक्षमें 'सुकृति' शब्दके षष्ठीमें 'सुकृतेः' पाठ मानकर 'खपरे शरि वा विसर्गलोपो वक्तव्यः' वार्तिकसे विसर्गका पाक्षिक लोप करने पर भी उक्त अर्थकी तथा 'सुकृते, स्थिर कृते' ऐसे सप्तम्यन्त श्लेषकी अनुपपत्ति होने से उक्त अथंके लिये जो 'प्रकाश' कारने 'सुकृत' ऐसे सविसर्ग पाठ माना है, वह चिन्त्य है ] // 7 // यदस्य यात्रासु बलोद्धतं रजः स्फुरत्प्रतापानलधूममञ्जिम / / तदेव गत्वा पतितं सुधाम्बुधौ दधाति पढीभवदनां विधौ / / 8 / / अथास्य सप्तभिः प्रतापं वर्णयति-यदिस्यादिभिः / अस्य नलस्य यात्रासु जैत्रयानेषु बलोद्धतं सैन्योक्षिप्तं स्फुरतः ज्वलतः प्रतापानलस्य यो धूमः तस्येव मञ्जिमा मनो. हारिवं यस्य तथोक्तं सप्तम्युपमाने त्यादिना बहुवीहिः / मञ्जशब्दादिमनिचप्रत्ययः। यत् रजः धूलिः, तदेव गत्वा उस्क्षेपवेगादिति भावः। सुधाम्बुधौ क्षीरनिधो पतितम्, अतएव पङ्कीभवत् सत् विधौ चन्द्रे तहासिनीति भावः / अकृतां कलङ्करवं दधाति / अत्रापि व्यन्जकाप्रयोगात् गम्योस्प्रेक्षा तथा व कलकत्वं दधातीवेत्यर्थः // 8 // ___ इस ( नरू ) की (दिग्विजय-सम्बन्धिनी) यात्राओं में, दीप्यमान प्रतापानिके धुएंके समान सुन्दर और यहाँसे जाकर अमृत समुद्र अर्थात् क्षीरसागर में गिरी हुई एवं ( गिरनेसे ) कीचड़ होती हुई, सेनासे उड़ी हुई धूल चन्द्रमामें कलङ्क हो रही है। (भथवा-अमृतके
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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