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________________ 200 नैषधमहाकाव्यम् / (पाप-जनक परस्त्री-दर्शन न होने के लिये ) चौरास्तेपर नेत्र बन्दकर खड़े हुए नल को चारो ओरसे आयी हुई सियां, उनका धक्का लगनेसे डरकर यदि अलग नहीं हो जाती तो उन्हें सुखपूर्वक अर्थात् अनायास ही पकड़ लेतीं // 27 / / / संघट्यन्त्यास्तरसात्मभूषाहीराकुरप्रोतदुलहारी। दिशा नितम्ब परिधाप्य तन्व्यास्तत्पापसन्तापमवाप भूपः // 8 // संघट्टयन्स्या इति / तरसा संघट्टपस्या अभिन्नस्यास्तन्म्याः, भास्मनो भूषाही. राणां भूषणवज्राणां, अङ्करेषु कोटिषु प्रोतं सावं दुकूलं हरतीति तद्धारी भूपः, नितम्ब तस्याः कटिं दिशा परिचाप्य संवस्य दिगम्बरं कृत्वा। तत्पापेन वखापहरणपापेन सन्तापमवाप // 28 // ( अपने शरीरके साथ ) बेगपूर्वक धका लगनेसे अपने भूषणमें जड़े हुए होराके किनारों में फंसे हुए ( स्त्रीके) वनको हरण करते हुए राजा नलने उस (खो) के नितम्ब को दिगम्बर ( वस्त्ररहित ) कर उस (परस्त्रीको वस्त्र-रहित करने ) के पापसे उत्पत्र सन्तापको धारण किया। [ यदि मेरे भूषणों में ये हीरे नहीं जड़े गये होते, या हीरा जड़े हुए इन भूषणों को मैं नहीं पहना होता, तब उनमें कपड़ेके नहीं फस जानेसे नही नहीं होती, अतः भूषणों को धारण कर मैंने पापका कार्य किया है, इस प्रकार राजा नलको दुःख हुआ ] // 28 // हतः कयापित्पथिकन्दु केन संघटय भिन्नः करजैः कयापि / कयाचनातः कुकुरमेन संभुक्तकल्पः स बभूव तामिः / / 29 // हत इति / स नलः, पथि कयाचित्कन्दुकेन हतः। कयापि संघव्य अभिहस्य करजैनखैर्भिः / कयाचन, कुचकुंकुमेन अक्तो लिप्तः। एवं ताभिः सम्भुक्तप्रायो बभूव // 29 // . मार्गमें अर्थात् चौरास्तेपर स्थित नलको किसी स्त्रीने गेंदसे मारा ( अदृश्य होने के कारण गेंद खेलती हुई स्त्रीका गेंद उनके शरीरसे टकरा गया) किसी स्त्रीने उनसे धक्का खाकर नाखूनोंसे खरोचा और किसी स्त्रीने ( धका लगनेस ) स्तनोंके कुङ्कमसे रंग दिया, इन ( अन्तःपुरकी स्त्रियों ) के द्वारा वे नल ( स्त्रियोंके साथ ) संभोग किये हुए के समान हो गये / [ स्वयं स्त्रियोंने ही सब कुछ किया नलने स्वयं कोई व्यापार नहीं किया, अतः उन्हें परस्त्री-सम्भोगजन्य दोष नहीं हुआ ] // 29 // छायामयः प्रैक्षि कयापि हारे निजे स गच्छन्नथ नेक्ष्यमाणः | तचित्तयान्तनिरचायि चार स्वस्यैव तन्व्या हृदय प्रविष्टः // 30 // छायामय इति / कयापि स्त्रिया निजे हारे छायामयः प्रतिबिम्बरूपः, स नलः, प्रैक्षि प्रेक्षितः। ईक्षतेः कर्मणि लुङ् / अथ गच्छन् अपसरन् , अत एव नेयमाणः अनिरीक्ष्यमाणः सन / स चित्ते यस्यास्तया तद्दर्भितचित्तया तन्व्या, स्वस्येव हृदयं प्रविष्ट इति अन्तरन्तःकरणे चारु साधु निरचायि निश्चितः। स छायानलः, तद्देशातिकमात्तस्या हारादेवापेतो न चित्तादिति सौन्दर्यातिशयोक्तिः // 30 // MO
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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