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________________ षष्ठः सर्गः। 305 अलग होकर 'मेरे शरीरेने परस्त्रीका स्पर्श कर लिया. अतः ये बड़े दोषी है। इस प्रकार अपने शरीरावयवों की निन्दा की। उधर नलके शरीरका स्पर्श होनेसे उन दोनों कन्याओं को रोमाञ्च हो गया। इससे नलका अत्यन्त उत्तम नायकत्व सिद्ध होता है ] // 21 // निमीलनस्पष्टविलोकनाभ्यां कदर्थितस्ताः कलयन् कटाक्षः। स रागदर्शीव भृशं ललज्जे स्वतः सतां होः परतोऽपि गुर्षी / / 22 / ' निमीलनेति / निमीलनं च स्पष्टविलोकनश्च ताभ्यां कदर्थितः निषिद्धस्पर्शनढोषोद्वेजितः / स नलः, ताः स्रियः, कटाक्षः कलयन निर्विकल्पेन गृहन् / रागेण पश्यतीति रागदर्शी, स इव भृशं ललज्जे / कष्टं कामुकदृष्टया पश्यामीति भृशं परि. तप्तोऽभूदित्यर्थः / नन्वप्रकाशेऽर्थे का लज्जा तत्राह-सतां सत्पुरुषाणां परतोऽपि स्वत एव होगंर्वी. अकामादप्यकार्यकरणे परस्मादपि स्वस्मादेव लज्जते सज्जन इस्यर्थान्तरन्यासः॥ 22 // ( इस प्रकार ) भांख बन्द करने तथा स्पष्ट देखनेसे व्याकुल वह नल उन ( अन्तःपुरमें स्थित बालाओं ) को कराक्ष ( सङ्कुचित नेत्र ) से देखते हुए अनुराग-सहित देखनेवालेके समान अत्यन्त लज्जित हुए / क्योंकि आवरण-रहित सज्जनोंको दूसरोकी अपेक्षा अपनेसे अधिक लज्जा होती है / [ आंख बन्द करनेसे परस्त्रियों के धक्का आदि ( श्लो० 1321) लगनेसे तथा आंख खोलनेपर परस्त्रीके स्तन, जघन, नाभि आदिका दर्शन (श्लो० 18,20) जन्यदोष लगनेसे व्याकुल नलने आंखको कुछ संकुचित कर लिया अर्थात् न तो सर्वथा बन्द ही किया और न सर्वथा खोला ही, अतः जिस प्रकार रागी पुरुष परस्त्रीको थोड़े संकुचित नेत्रसे देखता है, वैसे वे अपनेको समझकर बहुत लज्जित हुए / यद्यपि दूसरे के सामने ही लोगोंको लज्जा हुआ करती है, किन्तु यह नियम साधारण व्यक्तियोंके लिये है, बड़े सज्जन व्यक्ति तो दूसरेके न रहनेपर भी स्वयं अपने मनमें ही अधिक लज्जित होते हैं, अतः अदृश्य होनेपर भी नल मन ही मन बहुत लज्जित हुए ] // 22 // रोमाञ्चिताङ्गीमनु तत्कटाक्षान्तेन कान्तेन रतेर्निसृष्टः / माघः शरोघः कुसुमानि नाभूतदयपूजां प्रति पर्यवस्यन् / / 23 / / / रोमाशितेति / रोमाञ्चिताङ्गीमनु पुमङ्गसङ्गात् पुलकितगात्रीमुद्दिश्य, तस्य नलस्य, कटाक्षः कटाक्षवीक्षणैः, भ्रान्तेन अयमस्यामनुरक्त इति मन्वानेन, रतः कान्तेन कामेन, निसृष्टः प्रयुक्तः कुसुमान्येव शरीघः तस्य नलस्य, धैर्यस्य निर्वि कारचित्तत्वस्य पूजां प्रति पूजायां पर्यवस्यन् पूजात्वेन परिणमन् / मोघो व्यर्थो नाभत् / शत्रोरपि गुणः पूज्यो भवेदिति भावः / अत्र नलधैर्यभनार्थ प्रयुक्तस्य कुसु. मजालस्य, न केवलं तदभाकरवं प्रत्युत तत्पूजकत्वमापनमित्यनर्थोत्पत्तिलक्षणो विषमालङ्कारः // 23 // ( नलके शरीर-स्पर्शसे ) रोमाञ्चयुक्त स्त्रीको लक्ष्य नलके कटाक्ष ( श्लो० 21 के अनुसार संकुचित नेत्रसे देखने ) से ( ये दोनों परस्पर अनुरक्त हो गये, ऐसा समावेसे)
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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