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________________ षष्ठः सर्गः। 297 स्विद्यत्प्रमोदाश्रलवेन वामं रोमाञ्चभृत्पश्मभिरस्य चक्षुः। अन्यत्पुनः कंप्रमपि स्फुरन्तं तस्याः पुरः प्राप नवोपभोगम // 6 // अथैवं विद्यमानस्य तस्पेष्टसिद्धिसूचकं दक्षिणातिस्पन्दनं जातमित्याहस्विद्यदिति / अस्प नलस्य, वामं चक्षुः, प्रमोदाश्रुलवेन आनन्दबाष्पकणेन, स्विद्यत् स्विन्नं सत्, पचमभिः उन्मिषद्भिरिति शेषः / रोमानभृद्रोमाञ्चितं सत् , तस्याः पुरः नगर्याः, स्फुरन्तं प्रकाशमानं, नवोपभोगं अपूर्वदर्शनमाथसङ्गमञ्च प्राप। अन्यत् पुनर्दक्षिणं तु कम्प्रमपि कम्प्रश्च सत् तं प्राप / वामाषणः स्वेदरोमाशावेव / दक्षिणस्य तु वेपथुरप्यधिकः सात्विकः संवृत्त इत्यर्थः। प्रथमसङ्गमे कम्प्रस्वेदरोमाझा. दयो जायन्ते / पुरुषस्य दक्षिणालिस्पदनं शुभाय भवतीति निमित्तवेदिनः। अत्रानन्दापचमोत्क्षेपाधिस्पन्देषु स्वेदादिसात्त्विकरूपणाद्रूपकम् / तदुल्लासितनवोपभोगम्यवहारसमारोपात् पुरीचक्षुषोः स्त्रीपुंसत्वप्रतीतेः रूपकसङ्कीर्णा समासोक्तिर. लङ्कारः॥॥ " (दमयन्तीकी नगरीको देखनेसे उत्पन्न ) हर्षसे उत्पन्न थोड़ी आंससे 'खेद' नामक मात्त्विक भावकी, तथा पक्ष्म (पपनी-बरौनी ) के द्वारा 'रोमाञ्च' नामक सात्त्विक भावको धारण करता हुआ नलका बांया नेत्रने, और फड़कनेसे 'कम्प' नामक सात्त्विक भावको धारण करता हुआ दाहिना नेत्रने उस नगरी / ( 'कुण्डिनपुरी',-पक्षा० तद्रूप नायिका) के साथ नये उपभोगको किया। [ नव-नायिकाके साथ उपभोग करने से 'स्वेद रोमाञ्च तथा कम्प, नाम के सात्विक भाव होते हैं / वहां नगरीको नायिका तथा नलके नेत्रोंको नायक जानना चाहिये / पुरुषका वायर्यों नेत्र बरौनियोंमें आँसूसे युक्त हो तथा दाहिना नेत्र फड़के तो वह स्त्री-लाभ-सूचक शुभ शकुन होता है, ऐसा सामुद्रिक शास्त्र का सिद्धान्त है, अतः उक्त शकुन द्वारा भविष्य में नल को ही दमयन्ती पतिरूपमें वरण करेगी, ऐसा मुचित हुआ / अथवा-नल का वाया नेत्र ने बरौनियों से रोमाञ्च, को तथा हर्षजन्य आँस से स्वेद को धारण करता हुआ भी उस नगरीके उपभोग को नहीं ही प्राप्त किया अर्थात् आँसूसे भरे होने के कारण-नगरीको अच्छी तरह नहीं देख सका और दाहिना नेत्रने स्फुरित होनेसे कम्प, भाव को धारण करता हुआ उस नगरी के नये उपभोग को प्राप्त किया अर्थात् उस नगरी को पहला अवसर होने से अच्छी तरह से देखा। यहां पर जो नेत्र नलका वाम अर्थात् प्रतिकूल है, उसे नल-प्रिया दमयन्तीकी नगरीरूपिणो नायिका का उपभोग नहीं करना तथा जो नेत्र नलका दक्षिण अर्थात् अनुकूल है, उसे नल-प्रिया दमयन्तीका नगरीरूपिणी नायिकाका उपभोग करना नल के लिये अत्यन्त शुभ शकुन रथादसौ साथिना सनाथाद्राजावतीर्याशु पुरं विवेश / निर्गत्य बिम्बादिव भानवीयात्सौधाकरं मण्डलमंशुसंघः / / . || रथादिति / असौ राजा नलः सारथिना सनाथात् सहितात् रथादवतीर्य अंशु. सङ्घः अर्काशुसमूहः, भानवीयात् बिम्बानिर्गत्य सौधाकरं चान्द्र मण्डलमिव आशु
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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