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________________ 326 नैषधमहाकाव्यम् / राणां झरः दानजलप्रवाह, स एव मौक्तिकहारो यस्यास्तथोका कीर्तिरेव भवतां युष्माकं प्रितदाराः प्रिपकलनम् / 'पं भूग्नि दाराः' इत्यमरः। एतेन भार्याया अपि कीतिः प्रियतमेति भावः / अतो दमयन्तीलोमा कीर्ति जहीत्यर्थः। अत्र रूपका. लङ्कारः // 128 // हाथमें पाश धारण करनेवाले अर्थात वरुण भी हाथ उठाकर इस नलसे उचित बात कहे-'आप ( -जैसे राजा, पाठान्तरमें-राजाओं) की दानमें दिये जानेवाले सङ्कल्पजल. प्रवाहरूपी मुक्ताहारयुक्त कीत्ति ही प्रिय स्त्री है / [ मतः तुम्हें दमयन्तीको वरण करनेकी भमिला। छोड़कर हमगेगोंका दूत- कर्म करके कोक्ति (रूपा उत्तम स्त्री) को प्राप्त करना चाहिए ] // 128 // चर्म वर्म किल यस्य नभेद्यं यस्य वजमयमस्थि च तौ चेत् / स्थायिनाविह न कर्णदधीची तन्न धर्ममवधीरय धीर ! // 126 // चमेति / यस्य कर्णस्य चमत्वक नभेषमभेयम् / नअस्य न-शब्दस्य 'सुप्सु. पा' इति समासः / वम कवचं किल / यस्य दधीचेरस्थि च वज्रमयं किल / किलेति प्रसिद्धौ। तो महासत्वमालिनी कर्णवधीची। इह अगति, स्थायिनी न चेत् / तर्हि, हे धीर धीमन् ! धर्म नावधीरय नावमन्यस्व / कर्णादीनामस्थिरत्वम् / तद्धर्मस्य च स्थैयं दृष्ट्वा स्वमपि तथैषाचरेत्यर्थः // 129 // जिस (कर्ण) का चमड़ा अभेष कवच होगा तथा निस (दोचि ) की अभेद्य हड्डी वज्रमय थी, वे कर्ण तथा दधीचि इस संसार में स्थिर नहीं (क्रमशः होंगे और हुए), इस कारणसे हे धीर ! ( बुद्धिमान् नक!) धर्मका त्याग मत करो। [ द्वापर युगमें होनेवाले राजा कर्ण अभेद्य कवच बनानेके लिए अपने शरीरका चमड़ा इन्द्रको दे देंगे, तथा सत्ययुगमें हुए महर्षि दधीचिने वृत्रासुरको मारने के लिए इन्द्रके याचना करनेपर वज्र बनाने के किये अपनी इड्डी दे दी थी, वे दोनों (कर्ण तथा दधीषि) इस संसारमें क्रमशः स्थिर नहीं रहेंगे भोर न रहे / यहाँ कर्ण तथा दधीचिको क्रमशः दापर तथा सत्ययुगमें होना मानकर उक्त व्याख्या की गयी है। किसी-किसी व्याख्याकर्ताका कस्प-भेद मानकर कर्ण तथा दधीचि-दोनोंको ही भूतकाल के भभिप्रायसे ही एक साथ वर्णन करना विरुद्ध नहीं है। इस व्याख्यामें दोनोंको मृत्युने नहीं छोड़ा, अतः तुम्हें भी हमलोगोंकी याचना पूरी कर धर्मामन करना चाहिए / यह अर्थ समझना चाहिए ] // 129 // अद्य यावदपि येन निबद्धौ न प्रभू विचलितुं बलिविन्ध्यौ / आश्रुतावितथतागुणपाशस्त्वाशेन विदुषा दुरपासः / / 130 // भोति / येन सस्पसबस्वाशेन, निबद्धो बलिवैरोचनिःसचविण्यश्च तौ। जय यावदेवरिन , विचलितुमपि प्रभू समयौँ न स्तः। आश्रुतस्य प्रतिज्ञा
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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