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________________ 312 नैषधमहाकाव्यम् / अपरिमिताः सन्तीत्यर्थः / अत्र स्वं तोयराशिरसि / ते भूपाः कूपाः खलु, भूपवसा. म्येऽपि तेषां तव च समुद्रकूपयोरिव महदन्तरमित्यर्थः। तथा हि-दिग्याकाशे। ते ते प्रहाचन्द्रादयो न जाग्रति न प्रकाशन्ते किम् ? किंतु कतमो ग्रहो भास्वतस्तुलया साम्येनास्ते / न कोऽपीत्यर्थः। तद्वत्तवापि न कोऽपि भूपस्तुरूप इति रशन्तानकारः। __भूतलपर सैकड़ों राना है, किन्तु (गाम्भीर्य, औदार्य मादि गुणों के कारण) तुम समुद्र हो, तथा वे ( भन्य राना ) कूप है / स्वर्गमें श्या वे-वे ग्रह नहीं चमकते हैं, किन्तु सूर्यके समान कौन ग्रह है ? अर्थात कोई भी नहीं है। [जिस प्रकार समुद्रकी अपेक्षा कूप अत्यन्त तुच्छ हैं, उसी प्रकार गाम्भीर्य और मौदार्य आदि गुणोंसे युक्त तुम्हारी अपेक्षा अन्य सैकड़ों राना अत्यन्त तुच्छ हैं तथा जिस प्रकार स्वर्गमें सूर्य के समान कोई ग्रह नहीं, उसी प्रकार भूलोकमें तुम्हारे समान कोई राजा भी नहीं। यही कारण है कि अन्य सैकड़ों राजाओंको छोड़कर 'याच्या मोघा वरमधिगुणे नाधमे कब्धकामा' (गुणी दातामें निष्फल मी याचना अच्छी है, किन्तु गुणहीन दातामें सफल भी यापना अच्छी नहीं) इस नीति के अनुसार हमलोग तुम्हीसे याचना कर रहे हैं ] // 100 // विश्वदृश्वनयना वयमेते त्वद्गुणाम्बुधिमगाधमवेमः / त्वामिहैव' विनिवेश्य रहस्ये निवृतिं न हि लभेमहि सर्वे ? // 101 // विश्वेति / विश्वं पश्यन्तीति विश्वस्यानि सर्वधीनि / शेय॑न्तात् क्वनिप। तानि नयनानि येषां ते वयमेवागाधं गम्भीरम, तव गुणाः स्यादाक्षिण्यवशिस्वस. त्यसन्धस्वादयः, तानेवाम्बुधिमवेमः अवगच्छामः / इणो से मस / हि यस्मात् , इहास्मिन् , रहस्ये रहस्यकृत्ये, स्वामेव विनिवेश्य नियोज्य, सर्वे वयं निर्वृतिं सुखं न लभेमहीति काकुः / लभेमझेव, प्रागुतगुणादयस्वादिति भावः // 101 // विश्वदर्शी नेत्रवाले अर्थात सर्वश हमलोग हो तुम्हारे मयाह (मौदार्य आदि ) गुणरूप समुद्रको जानते हैं। हम सब तुमको इस (दमयन्तोके पास दूत-कमरूप ) गुप्त कार्यमें नियुक्तकर सुख नहीं पायेंगे क्या ? अर्थात् अवश्य सुख पायेंगे (पाठभेदसे-हम सब तुमको इस गुप्त कार्यमें इस प्रकार विना नियुक्त किये सुख नहीं पायेंगे)। [ अतः तुम हमारे दूत-कर्मको करके हमें सुखी करो, अन्यथा यदि तुम दूत-कर्म नहीं करोगे तो हमें कष्ट होगा और उस अवस्थामें हम तुम्हें शाप दे देंगे। 'पूर्वोक्त कपटपूर्ण इन्द्रके वचनको भन्य यमादि देवता समझ न लें' इस कारण यहाँपर कपटाचार्य इन्द्रने 'स' (हम सब) पद कहा है ] // 101 // शुद्धवंशजनितोऽपि गुणस्य स्थानतामनुभवन्नपि शक्रः / क्षिप्नुरेरनमृजुमाशु सपक्षं सायकं धनुरिवाजनि वक्रः // 102 // 1. स्वामिहैक-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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