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________________ 307 पञ्चमः सर्गः माममीभिरिह याचितवद्भिर्दातृजातमवमत्य जगत्याम् / यद्यशो मयि निवेशितमेतन्निष्क्रयोऽस्तु कतमस्तु तदीयः // 10 // मामिति / जगत्यां भुवि भुवने वा। 'जगती भुवने भूभ्याम्' इति विश्वः / दातृ. जातमवमस्यावधीय, मां याचितवद्भिरमीभिर्देवैर्यधशो मयि निवेशितं स्थापितम, एतनिष्क्रयः एतस्य यशसो निक्रयः प्रतिनिधिभूतः। कतमस्तु पदार्थस्तदीयोऽस्तु इन्द्रादिसम्बन्धी स्यात् / किं वितीर्य अनृणो भविष्यामीत्यर्थः // 9 // . इस संसार में अन्य दाताओं के समुदायको छोड़कर मुझसे याचना करनेवाले इन्होंने (इन्द्रादिने ) मेरे जिस यशको स्थापित किया है ( अथवा-कल्पवृक्ष आदिके रहते उनको छोड़कर इस लोकमें मेरे जिस यशको स्थापित किया है ), उसका बदला (देने के योग्य) कौन वस्तु हो ? [ 'भूमिस्थ अन्यान्य दाताओं को या स्वर्गस्थ कल्पवृक्ष आदिको छोड़कर कहीं कभी नहीं याचना करनेवाले इन्द्रादिने भी नलसे याचना की थी' इस प्रकार जो मेरे अत्यन्त श्रेष्ठ यशको स्थापित किया है, उसका बदला चुकानेके लिये कोई वस्तु नहीं दीखती, जिसे देकर मैं इनसे ऋणमुक्त होऊँ / अधिक देना तो दूर रहा, याचना करने पर भी इनके द्वारा स्थापित महान् यशका बदला चुकाना ही मेरे लिये अशक्य प्रतीत हो रहा है ] // 90 // लोक एष परलोकमुपेता हा विहाय निधने धनमे कः / इत्यमुं खलु यदस्य निनीषत्यर्थिवन्धुरुदयद्दचित्तः // 11 // लोक इति / एष लोको जनः, हा कष्टं, निधने अन्त्यकाले, धनं विहाय, एकः एकाकी, परलोकमुपेता उपैष्यति / इणो लुट / इति हेतोरुश्ययमुघरकृपश्चित्तं यस्य सोऽध्यव, बन्धुरस्य लोकस्य, तद्धनम् अमं परलोकं, निनीषति नेतुमिच्छति खलु / अन्ये तु बन्धवा स्वयमेव सर्वस्वं गृह्णन्ति / नैवं प्रापयन्तीत्ययमेवापदन्धुः सङ्ग्राह्य इति भावः // 91 // यह जन मरनेपर धनको छोड़कर अकेला ( असहाय ) परलोकको जायेगा, हा कष्ट है, अतः दयायुक्त चित्तवाला याचक-बन्धु उस ( परलोकगत व्यक्ति ) के इस धनको इसके पास ( या परलोकमें ) पहुंचाना चाहता है। [ जैसे कोई व्यक्ति अपना सामान छोड़कर कहीं बाहर जाता है तो उसके सामान ( सब वस्तुओं) को उसके प्रिय बन्धु दयाकर उसके पास पहुँचा देते हैं, उसी प्रकार याचक मो अकेले परलोक में गये ( मरे) हुए व्यक्ति के सामानको 'दान की हुई वस्तु ही मरनेपर परलोकमें जीवको मिलती है' इस शास्त्रीय वचन के अनुसार स्वर्ग में पहुंचा देता है / अथवा-पुत्र-पौत्रादि बान्धव तो मरे हुए व्यक्ति के धनको स्वयं ले लेते हैं, किन्तु दयालु याचकरूप बन्धु उक्त शास्त्र-वचनानुसार उसे परलोकगत व्य विस के पास पहुंचा देता है, अतः पुत्र-पौत्रादिसे मी याचक बन्धु ही श्रेष्ठ हे, इस कारण याचकको तो अवश्य हो दान देना चाहिये ] // 91 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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