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________________ 262 नैषधमहाकाव्यम् / चित्रमत्र विबुधैरपि यत्तैः स्वर्षिहाय बत भूरनुसने / द्यौर्न काचिदथवास्ति निरूढा सैव सा चरति यत्र हि चित्तम् // 57 / / चित्रमिति / विबुधैर्देवैः विद्वनिला, तैरिन्द्रादिभिः, स्वः स्वर्ग, विहाय, बत हन्त, भूरनुसने अनुसतेति षत् / अत्र चित्रं काफः, न चित्रमित्यर्थः / कुतः, अथवा चौः स्वर्गव, काचिदपि निरूढा प्रसिदा नास्ति / किन्तु यन्त्र चित्तं चरति रमते, सैव सा पौर्हि // 57 // देवता ( पक्षान्तरमें-विशिष्ट विद्वान् ) भी उन लोगोंने जो स्वर्ग छोड़कर पृथ्वीका अनुसरण किया अर्थात् पृथ्वीपर बाये, इसमें आश्चर्य है। (जब साधारण शान रखनेवाला व्यक्ति भी पृथ्वीको छोड़ स्वर्गलाम करनेका प्रयत्न करता है, तब विशिष्ट ज्ञानवान् हन लोगों ने उल्टे स्वर्गको छोड़कर पृथ्वीपर मागमन किया, यह आश्चर्यका विषय है। अथवा-....."आगमन किया, इसमें आश्चर्य है ? अर्थात् कोई भाश्चर्य नहीं (क्योंकि-) 'स्वर्ग' इस नामसे प्रसिद्ध कोई (स्थान आदि ) नहीं है, किन्तु जहाँपर जिसका मन चलता है अर्थात् जिस स्थानादिमें मन अनुराग करता है, उसके लिये वही स्वर्ग है। ( अतः देवताओंका स्वर्ग छोड़कर भूमिपर आना उचित ही है ) // 57 // शीघ्रलंधितपथैरथ वाहैलम्भिता भुवममी सुरसाराः / वक्रितोन्नमितकन्धरबन्धाः शुश्रुवुर्ध्वनितमध्वनि दूरम् / / 58 // शीघ्रति / शीघ्रं लंधितपरतिक्रान्साध्वभिा, रथवाहै रथाश्वैर्भुवं लम्भिताः प्रापिताः, अमी सुरसाराः सुरश्रेष्ठाः, वक्रिताचलिताः, उसमिताश्च कन्धराः प्रीवा:, यस्मिन् स बन्धः कापसंस्थानविशेषो येषां ते सन्तः, अध्वनि दूरं ध्वनि शुश्रुवुः // इसके बाद शीघ्र रास्ता तय करनेवाले घोड़ों ( या विमानादि सवारियों ) से भूमिपर पहुँचे हुए उन श्रेष्ठ देवताओंने गर्दनको टेढ़ाकर ऊंचा किये हुए, दूरके शब्दको सुना (अथवा-अन्य वार्तालापको छोड़कर अर्थात चुपचाप होकर दूरको ध्वनिको मुना // 58 // किं घनस्य जलधेरथवैवं नैव संशयितुमप्यलभन्त | स्यन्दनं परमदूरमपश्यन्निःस्वनश्रुतिसहोपनतं ते // 56 // किमिति / ते देवाः, किं धनस्य ध्वनितम्, मेघस्तनितम्, अथवा जलधेः ध्व. नितम्, एवं संशयितुमपि नालमन्तैव / एतावन्मात्रविलम्बोऽपि नास्तीत्यर्थः। 'शकष' इत्यादिना तुमुन्प्रत्ययः। किन्तु, निःस्वनस्य पूर्वोक्तध्वनितस्य, अत्या श्रवणेन, सहोपनतं प्राप्तम्, अदूरमासन्नं स्यन्दनं परं रथमेवापश्यनिति / रथवे. गोक्तिः / अन्न सन्देहसहोक्स्योः संसृष्टिः // 59 // ये देवता जब तक 'यह मेषका शब्द है ? या समुद्रका' ऐसा सन्देह करने के लिये भी
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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