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________________ 286 नैषधमहाकाव्यम् / मावन्ताविति भावः। असौ कामः सा सुषमैव द्वारं तेन सङ्क्रमिता वैवकं वैद्यस्य भैषज्यम् / 'योपधाद् गुरूपोत्तमाद् वुज' / तदेव विद्या यस्मिन् सः। अतएव तारक स्ववैद्यसरशः सन् अभिषज्यत् चिकिरिलतवान् / भिषज्यतेः कण्ड्वादियगन्ताल्लङ्। वेदमीत्युस्प्रेक्षायाम् / वाक्यार्थः कर्म // 46 // ___ स्वर्गलोकके दोनों वैद्यों ( अश्विनीकुमारों ) की जो श्रेष्ठ शोभा है, वह कामदेवको स्पर्श करती है ( अश्विनीकुमारोंके समान कामदेव भी अत्यन्त सुन्दर है) उस (श्रेष्ठ शोभा) के दारा वैद्यक विद्याको प्राप्त करनेवाला यह कामदेव वैसा ( अश्विनीकुमारोंके समान, अथवाइन्द्र के हाथ के लिए दमयन्तीका पाणिग्रहण रूप ) चिकित्सा किया / [ कामदेवको स्वर्गवैद्य अश्विनीकुमारों के समान होने के कारण कामदेवका वैध होकर इन्द्र के लिए औषध बतलाना असमत नहीं है। अन्यत्र भी किसी व्यक्ति में किसी दूसरे व्यक्तिके एक गुणके साथ दूसरा गुण भी पहुँच पाता है ] | 41 // मानुषीमनुसरत्यथ पत्यौ खर्वभावमवलम्ब्य मघोनी / खण्डितं निजमसूचयदुच्चैर्मानमाननसरोरुहनत्या // 4 // अथेन्द्राण्या ईर्ष्यानुभावमाह-मानुषीमिति / अथेन्द्रस्य भैमीरागानन्तरं मघोनः सी मघोनी शची। 'पुंयोगादाण्यायाम्' इति डोष। 'श्वयुवमघोनामतद्धित' इति सम्प्रसारणे गुणः / पस्यो खर्वभावं नीचस्वमवलम्ब्थ मानुषी मानुषत्री, 'जातेरसी' इत्यादिना डीष / अनुसरत्यनुवर्तमाने सति, आननसरोव्हनत्या शिरोनमनेन, उच्चैहातं निज मानं सर्वोत्तरस्वाहंकारं खण्डितं मग्नमसूचयत् / आकारणव निज. निर्वेदमवेदयत् / न तु वाचा किश्चिदूचे / गम्भीरनायिकारवादिति भावः // 47 // इस (इन्द्रको दमयन्तीकी इच्छा होने ) के बाद इन्द्राणीने नीचताका अवलम्बनकर मानुषी ( दमयन्ती ) के पीछे पति इन्द्र के चलनेपर (इन्द्रद्वारा दमयन्तीको चाहने पर) मुखकमलको नम्रकर (अधोमुखी होकर ) अपने उच्च मान ( पतिकृत अत्यधिक भादर या इन्द्राणीरूप उच्चपद, ( पक्षान्तरमें-ऊँचा प्रमाण ) को खण्डित हुआ बतलाया। अथवानीचताका अवलम्बनकर मुखकमलको नम्रतासे पतिको मानुषीका अनुगमन करनेसे इन्द्राणी ने अपने उच्च मानको खण्डित बतलाया। अथवा-पतिके मानुषीके पीछे गमन करने पर इन्द्राणीने खर्वभाव ( दीनमाव ) को अवलम्बनकर मुख-कमलके नीचा करनेसे मान (पतिकृत मादरपूर्वक स्नेह) को खण्डित बतलाया। [यहां प्रथम अर्थमें-जिस इन्द्र ने वामन भाव (नीचता) को ग्रहण किया, उसी इन्द्रका मान (ऊंचाई) घटना चाहिये, किन्तु इन्द्रका मान न घटकर इन्द्राणीका घटा, यह आश्चर्य है। द्वितीय अर्थमें-इन्द्र यह समझते थे कि मैं इन्द्राणीको छोड़कर एक मानुषी ( कोई अन्य देवाङ्गना नहीं) के पीछे चल रहा हूं (पीछे चलनेसे दासभाव प्रकट होता है) अतः इन्द्राणीके सामने अपना मुख मी ऊँचा नहीं कर पाते थे। तृतीय अर्थमें-पतिको मानुषो के अनुगमन करनेसे इन्द्राणीको पतिका
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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