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________________ पञ्चमः सर्गः 283 उपहस्य समय, तस्थिवान् तूष्णीं स्थितः / अथ नारदस्य प्राशुनिःश्वसितस्य पृष्ठे चरतीति पृष्ठचरी पखाद्वामिनी दीर्घनिश्वासपूर्विकेत्यर्थः / घरेष्टः / निरोनाः दीना वाक निरियाय निजंगाम // 40 // विनयके समुद्र इन्द्र ऐसी बातें ( श्लो० 38-39) मुनि नारदजीसे कहकर चुप हो गये। ( फिर युद्ध की आशा नहीं होने से ) लम्बी सांस लेकर वह ( नारदजी ) दोन वचन बोले। [अन्य कोई व्यक्ति भी अपनी अमीष्ट सिद्धिको नहीं पूरी शेती देखकर लम्बी सांस लेकर दोन वचन बोलता है ] // 40 // स्वारलातलभवाहत्रशङ्की निवृणोमि न वसन् वसुमत्याम् / द्यां गतस्य हृदि मे दुरुदर्कः क्षमातलद्वयभटाजिवितकः // 11 // स्वरिति / वसुमत्यां भूलोके वसन् स्वश्च रसातलं च स्वारसातले स्वर्गपाताले 'रोरि' इति रेफलोपेदीर्घः / तयोर्भवमाहवं शङ्कत इति तच्छती सन् / न निवृणोमि न सन्तुष्यामि / वां स्वर्ग गतस्य मे हृदि चमातले भूपाताले। 'अधः स्वरूपयोरखी तलम्' इत्यमरः / तयोदये भटानामाजिवितर्को युदशङ्का दुरुषको दुरुत्तरः / 'उदकः फलमुत्तरम्' इत्यमरः / एवं पातालगतस्य इतरलोकाजिवितर्क इति शेषः // 4 // मृत्युलोकमें रहता हुआ मैं स्वर्ग तथा पातालमें होनेवाले युद्धकी शंकासे सुखी नहीं होता हूँ, स्वर्गमें आये हुए मेरा मृत्युलोक तथा पातालमें वीरोंके युद्ध करनेका वितर्क करना निष्फल है ! [ परिशेषात-पाताल में गये हुए मेरा स्वर्ग तथा मृत्युलोकके वीरोंको परस्परमें युद्ध करने का वितर्क मी निष्फल है। प्रत्यक्ष युद्धको देखने से ही मुझे मुखप्राप्ति होती है, अतः मृत्युकोकमें रहता हुमा स्वर्ग तथा पाताळके वीरोंका, स्वर्गमें रहता हुआ मृत्युलोक तथा पातालके वीरोंका और पातालमें रहता हुआ स्वर्ग तथा मृत्युलोकके वीरोंका युद्ध होने का वितर्क कर मैं सुखी नहीं हो सकता क्योंकि मैं किसी एक लोकमें रहकर अन्य लोकमें होने वाले युद्धको प्रत्यक्ष नहीं देखनेके कारण सुखी नहीं हो सकूँगा ] // 41 // / वीक्षितस्त्वमसि मामथ गन्तुं तन्मनुष्यजगतेऽनुमनुष्व | कि भुवः परिवृढा न विवोढुं यत्र तामुपगता विवदन्ते / / 42 // वीचित इति / त्वं वीक्षितोऽसि / एतदेवागमनफलमित्यर्थः / तत्तस्मारफलान्तराभावात्। अथानन्तरं मा मनुष्यजगते गन्तुं मस्र्यलोकंगन्तुमित्यर्थः / स्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुथ्र्यो चेष्टायामनध्वनि' इति चतुर्थी। अनुमनुष्व अनुजानीहि / तत्र मर्त्यलोके, तां दमयन्ती, विवोटुं परिणेतुम् उपगता भुवः परिवृद्धाः, प्रभवो भूपतयः 'प्रभौ परिवृढः' इति निपातः। न विवक्षन्ते न कलहायिष्यन्ते किम् ? अपितु सर्व एव विवादं करिष्यन्तीति भावः। सामीप्ये / लट / भावनादिसूत्रेण वदेरकर्मकस्वात् विम
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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