SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमः सर्गः शैशवव्ययदिनावधि तस्या यौवनोदयिनि राजसमाजे / आदरादहरहः कुसुमेषोरुल्ललास मृगयाभिनिवेशः / / 33 // शैशवेति / कुसुमेषोः कामस्य, यौवनोदयिनि यौवनप्रादुर्भाववति, राजसमाजे राजसमूहे विषये, तस्याः भैम्या, शैशवश्यदिनं बाल्यापगमदिनम्, अवधिः सीमा यस्मिस्तत्तथा, तहिनमारभ्येत्यर्थः / अहरहः प्रत्यहम् / वीप्सायां विर्भावः / अत्यन्त. संयोगे द्वितीया / आदरात मृगयायामभिनिवेशः आग्रहः / उखलास ववृधे / सर्वेषा. मपि यूनां भैमीयौवनोद्भेदात् प्रभृति स्मरण्यसनमेव वर्तते, न समरग्यसनमित्यर्थः॥ प्टस दमयन्तीके बचपन बीतने के दिनसे लेकर अर्थात् युवावस्था प्रारम्भ होने के दिनसे, युवावस्था प्राप्त करते हुए ( अथवा-युवावस्था तथा ऐश्वयं-समृद्धिवाले ) राज-समुदाय में कामदेवकी मृगया (शिकार ) का आग्रह प्रतिदिन अधिक बढ़ रहा है [ दमयन्तीके युवती होनेके दिनसे युवक राज-समुदाय कामदेवके शिकार ( वशीभूत ) हो रहे हैं ] // 33 // इत्यमी वसुमतीकमितारः सादरास्त्वदतिथिभवितुं न / भीमभूसुरभुवोरभिलाष दूरमन्तरमहो नृपतीनाम् // 34 // इतीति / इतीस्थममी नृपाः वसुमत्याः कमितारः कामयितारः सन्तः तृच। वसुमती वा कभितारः / ताच्छील्ये तृन् / 'न लोक-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः / 'आयादय आर्धधातुके वा' इति विकरुपादुमयत्रापि णिजभावः / स्वदतिथिर्भवितुं सादराः साकाक्षा न / तथा हि, नृपतीनां भीमभूः भैमी सुरभूः द्यौस्तयोरभिलाषे तद्विषयानुरागे दूरमन्तरं महत्तारतम्यम्, अहो, स्वर्गेऽप्यरुचिरित्याश्रर्यम् / एतेन सुराङ्गनातिशायिसौन्दय दमयन्त्या इति म्यज्यते / भीमदेशसुरदेशयोः महान् विप्र. कर्ष इत्यर्थान्तरप्रतीतिः / अत्रोत्तरनाक्यार्थेन स्वर्गारुच्या पूर्ववाक्यार्थातिथ्यानाद. रस्य समर्थनाद्वाक्यार्थहेतुकं काध्यलिङ्गमलङ्कारः॥३४॥ इस कारण पृथ्वीको चाहने वाले पृथ्वीको चाहते हैं ( दमयन्तीको प्राप्त करने के लिये पृथ्वीपर ही रहना चाहते हैं ) तुम्हारे अतिथि होने के लिये ( युद्ध में प्राणत्यागकर स्वर्गमें माने के लिये ) आदर नहीं करते (स्वर्गमें आना नहीं चाहते)। अथवा-इस प्रकार दमयन्तीके इच्छुक पृथ्वीको चाहने वाले ( पहिले युद्ध में शत्रुको जीतकर भूमिको चाहनेवाले ) ये ( राजालोग ) तुम्हारे अतिथि होने के लिये आदर नहीं करते ( युद्ध में मरकर स्वर्ग पाना नहीं चाइते ) / महो ! भीमनगरी ( कुण्डिनपुरी), तथा देवभूमि ( स्वर्ग ) को राजाओं के चाहने में बहुत दूरका अन्तर है, भीमकी राजधानी कुण्डिनपुरीको स्वर्गको अपेक्षा पास होने से राजालोग समीपस्थ कुण्डिन पुरीको ही जाना चाहते हैं, स्वर्गको नहीं। अथवामीमकन्या (दमयन्ती) और देवकन्या (भमराजना) को राजाओंके चाइने में बहुत दूरका भन्तर है अर्थात् राजालोग देवाङ्गनाओंसे भी अधिक सुन्दरी दमयन्तीको हो चाहते हैं, 19 नै०
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy