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________________ पञ्चमः सर्गः चाहते हो, लेकिन उसे पूछना व्यर्थ है, उसका परिवार मैं नहीं दे सकता / अन्य मो व्यक्ति किसीके प्रश्नका उत्तर नहीं देना चाहता है तो उसके मोठ का हिना देख कर उसे प्रश्न करने का इच्छुक समझकर उसे प्रश्न करने के पहले हो रोक देता है ] // 28 // यत्पथावधिरणुः परमः सा योगिधीरपि न पश्यति यस्मात् / पलया निजमनःपरमाणो होदरोशयहरोकृतमेनम् // 26 // किं कपटादायनं, नेस्याह-यापयति / परमो अगुपस्या योनिधियः पन्थाः, यापयतस्यावधिः सीमा, सा योगिधोरपि / षालया निजमन ए परमाणुः / अगु परिमाणं मनः' इति स्वगात् / तस्मिन् हारेव दरी गुहा तयहरोक्तं तद्गत. सिंहीकृतम्, एनं युवान, यस्मान्न पश्यति तस्मान्न का इति पूर्व गान्धयः। योगिबुद्धरपि परमाणुस्वरूग्राहियो। नान्तप्रवेशे शक्तिरित्य हानादयनं, न कपटात् / सा तु मन्दासमन्यातया न कथयतीत्यर्थः // 29 // परमाणु योगियों को बुद्धि के मार्गको अन्तिम अवधि है अर्थात योगोलोग भविकसे अधिक सूक्ष्म पदार्थ परमाणु तक हो देख सकते हैं; बाका (दमयतो) के द्वारा अपने मनोरूप परमाणु बारू गुहामें साने वाले सिंह बनाये गये इसे (युवक को) बह योगिः बुद्धि मो नहीं देखतो है / [ जिस प्रकार गुहामें सोए हुर सिंहको अन्धकार होने से कोई जहों देख सक, उसो प्रकार दमयन्तो-मनोरूा परमाणु में उसे रखो है ओर गुहाके समान विशाल मौर अन्धकार युक लज्जा में सिंहके समान छिग रखा है अर्थात लज़ाके कारण उस युवक का नाम अपने मन में हो रखो है, किपोसे वाहातो नहों; अत एव उस युवक का नाम कई नहीं जानता जो आपने बाला सके / योगोलोग मन के बराबर परि. माणवाले परमाणु तक का प्रत्यक्ष करते हैं, किन्तु वह युवक दमपन्तोके परमाणु परिगाम मन के भो मोतर रहने से उस मनसे मो समातिसूक्ष्म होने से अशेष है। यही कारण है कि योग के बल पर भी मैं उसका नाम नहीं बतला सकता] // 29 // सा शरस्य कुसुमस्य शरव्यं सूचिता विरहवाचिभिरङ्गैः / तातचितमपि धातुरचत स्वस्वयंवरमहाय सहायम् // 30 // तर्हि कामुकीत्वमात्रं वा कपस्याः प्रीतम आह-लेते / सा भेत्री, विरह. वाचिभिः विहव्योगः काश्यंगहिमादिपरिविष्टेरिति भावः। कुसुमशरस्य कामबागस्य शरव्यं लव, सूचना। कुप्रचियनि बदमावत्येतावन्मासाते. त्यर्थः। तर्हि तरिपत्रा वा वरविशेषज्ञानं विवाहोपायः कथं चिन्तितस्ताहतातचितनपि (क), स्वस्वयंवरमहाय धातुः सहायमबत अकोत् / सहकारोच. कारेत्यर्थः / तस्पित्रापि पातृपेगा स्वयंवर एकोपायश्चिन्तित इति भावः // 30 // (पाण्डुना, दुबंता आदिके द्वारा) विरह को बताने वाले कामगा लश
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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