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________________ 270 नैषधमहाकाव्यम्। ततः किमत आह-पार्थिवमिति / वीराः पूर्वोक्ता रणपातिनः, पार्थिवं पृथिवीविकारम् अत एव गौरवात् गुरुस्वगुणयोगित्वात् , ऊर्ध्वगमनस्योस्पतनकर्मणः, पार्थिः वस्वादू लोकप्राप्तेश्च, दूरमत्यन्तं विरोधि निजं वपुः, आजिषु युद्धेषु अपास्य मरततामतिथिसरकारस्तस्य ऋद्धिम, 'ऋत्यकः' इति प्रकृतिभावः / भजन्ते हि / तारग्वी. राला स्वस्यातिथिलाभो न स्यादिति भावः // 15 // वीर लोग पार्थिव ( नृपमावापन्न, अथवा-मिट्टीसे बने ) अत एव गौरव ( बड़प्पन, अथवा-भारीपन ) से अत्यन्त दूर ऊपर जाने में असमर्थ अपने शरीरको छोड़कर (अथवा मारी होनेसे ऊपर उठने अर्थात् स्वर्ग जाने में असमर्थ अपने पार्थिव शरीरको दूर ( भूतल पर ) हो छोड़कर मुझसे अतिथि-गौरवोन्नतिको प्राप्त करते हैं। [ अन्य मी व्यक्ति दूर माने के लिये भारी बोझको छोड़ देता है / पार्थिव अर्थात् मिट्टोसे बनी वस्तुको छोड़कर इन्द्रकृत गौरवमयी समृद्धिका सबके लिये प्रिय होना उचित हो है। मारो वस्तुको छोड़कर भधिक भारी तथा अपनी वस्तुको छोड़कर दूसरे की वस्तु ग्रहग करना कौन नहीं चाहता ? अर्थात समो चाहते हैं / अथवा-वे वीर वैसे अपने शरीरको छोड़कर गौरव ( महत्त्व ) के कारण मुझसे की गयो गौरवपूर्ण अतिथिसत्काररूपी समृद्धिको पाते हैं इत्यादि यथाशान अन्य भी अर्थ कर लेना चाहिये ( जब ऐसे वारों के लिए स्वर्गाधोश देवराज इन्द्र मो तरसते हैं तो वे वीर धन्य हैं ) / उन वीरों के इस समय स्वर्गमें पतिथि-सरकारसे प्राप्त होनेवाले पुण्यातिशयसे मैं वञ्चित रह जाता हूँ अत एव उन वारों के विषय में पूछ रहा हूं ] // 15 // साभिशापमिव नातिथयस्ते मां यदद्य भगवन्नुपयान्ति | तेन न श्रियमिमां बहु मन्ये स्वोदरैकभृति कार्यकदर्याम् / / 16 // ननु तदलाभे तेषामेव सरकारहानिस्तव तु न काचित् अतिरिष्यत आहसाभिशापमिति / हे भगवन् मुने ! ते वीराः अतिथयः, अभिशापेन सह वर्तत इति साभिशापं मिथ्याभिशस्तमिव / 'अश मिथ्याभिशंसनम् / अभिशापः' इत्यमरः। मामद्य नोपयान्तीति यत् / तेन हेतुना / स्वोदरस्यैकस्यैव, भृतिकार्यण, पोषणक स्येन, कदयां कृपणाम / 'कदर्य कृपणः चुद' इत्यमरः / 'आत्मानं धर्मकरयं च पुत्र. दारांश्च पीतयेत् / लोमायः पितरौ भ्रातन् म कदर्य इति स्मृतः // ' इति च / इमा श्रियं न बहु मन्ये / अतिथि सत्कारशून्यस्य श्रीवैफल्यमेव तिरिति भावः // 16 // हे भगवन् ! वे वीर अनिधि जो पान (इस समय ) महापातक आदिसे कलछुतके समान मेरे यहां नहीं आते हैं, उससे केवल अपने पेट मरनेके कार्य तुच्छ ( या काण) इस ( स्वर्गेश्वर्य : 5 ) लक्ष्मीका मैं अत्यन्त आदर नहीं करता अर्थात् उसे अच्छा नहीं मानता / [धन होने का मुख्य फल अतिथि-सत्कार होने से, इस समय उसका लाभ न होने के कारण स्वर्गका यह ऐश्वर्य मुझे अच्छा नहीं लगता है ] // 16 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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