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________________ 268 नैषधमहाकाव्यम् / के यहां भाकर पूजा प्राप्त करना उचित ही है। द्वार पर आया हुआ शत्रु हो, या महामूर्ख भी ब्राह्मण हो तो उसका विद्वान् लोग पादर-सत्कार अवश्य ही करते हैं ] // 10 // तद्भुजादतिवितीर्णसपर्याद् द्योगुमानपि विवेद मुनीन्द्रः / स्वःसहस्थिति सुशिक्षितया तान् दानपारमितयैव वदान्यान् // 11 // तदिति / मुनीन्द्रो नारदस्तान्, प्रसिद्धान् धोनुमान रूपवृक्षानपि, अतिविती. जसपर्यादतिमात्रदा पूजात, तरयेन्द्र न्य, भुजाद्धरतादेव, गुरोः रवः स्वर्गे, सहस्थिया सहवासेन, सुशिक्षित या स्तम्यरतया, दानपारमिता नाम दानकर्तव्यताप्रतिपादको प्रन्यविशेषः, तथैव कारणेन वदान्यान् विवेद / इन्द्रहरतः कल्पवृक्षाणामपि दानविद्योपदेष्टेयुत्प्रेरितवानित्यर्थः / वलपवृक्षातिशायौदार्यमायेति भावः // 11 // मुनिराज नारदजीने अतिशय दानशीलतासे (अथवा-अधिक दानशीलताका प्रतिपादक 'दानपारमिता' नामक ग्रन्थ विशेषसे ) हो अत्यधिक पूजन (भादर सत्कार ) करने वाले (गुरुरूप) इन्द्र के हार्थोसे स्वर्गमें नित्य साथ रहने से शिक्षा प्रहण किये (सीखे) हुए, स्वर्गवृक्ष अर्थात कल्पवृक्ष आदिको अतिशय दान देनेसे वदान्य (अतिशय दान करनेवाला) माना। [ 'संसजा दोषगुणा भवन्ति' अत्ति के अनुसार जो जिसके साथ सदा रहता है, वह बिना सिखाये भी उसके गुणों को सीख लेता है, यहां देवर्षि नारदजीने दानवीर इन्द्र के हायोंसे अत्यधिक भादर सत्कार पाकर यह निश्चय किया कि कल्पवृक्षों की दानशीलता स्वभावक नहीं, किन्तु महादानी इन्द्र के सहवाससे है। इन्द्र कल्पवृक्षोंसे भी अधिक दानी थे] // 11 // मुद्रितान्यजनसंकथनः सन्नारदं बलरिपुः समवादीत् / आकरः स्वपरभूरिकथानां प्रायशो हि सुहृदोः सहवासः // 12 // मुद्रितेति / बलरिपुरिन्द्रः, मुदितान्यजनसंकथनो निवारितेतरजनालापः सन् , नारदं समवादीत् , तेन सह संडापमकार्षीदित्यर्थः। किं संवाधं तदाह-प्रायशः सुहृदोमित्रयोः सहवासः सङ्गमः, स्वे मारमीयाः परेच स्वपरे तेषां याः भूरयः कथाः प्रसास्तासाम् आकरः खनिर्हि / इष्टालापानामियत्ताभावात् संवादसिद्धिरित्यर्थान्तरम्यासाभिप्रायः / 'खनिः खियामाकरः स्यात्' इत्यमरः // 12 // बल दैत्य के शत्रु इन्द्रने दूसरे लोगोंकी या दूसरे लोगों के साथकी बातचीतको रोककर नारदजीसे कहा-क्योंकि दो मित्रोंका सहवास प्रायशः अपनी तथा दूसरों की बहुत-सी कथाओं की खान होता है / [दो मित्रों के मिलने पर अपनी र हार्दिक हस्यमयी बातें तथा अन्यान्य विविध संभाषण निरन्तर हुआ करते हैं, इसी कारण इन्द्र दूसरे लोगोंसे संभाषण करना आदि कार्य रोककर स्वयं नारदजी के साथ सम्भाषण करने लगे ] // 12 // तं कथानुकथनप्रसृतायां दूरमालपनकौतुकितायाम् / भूभृतां चिरमनागमहेतुं ज्ञातुमिच्छुरवदच्छतमन्युः // 13 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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