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________________ 264 नैषधमहाकाव्यम् / मी स्मय (याश्रय) के लिए हुभा ( पक्षियोंने भी गुरुतम नारदजी को भाकाश लांघते (रूपर जाते ) देखकर बड़ा आश्चर्य किया कि इस प्रकार शीघ्र हमलोग भी नहीं उढ़ सकती)। [जो पर्वत अव है, उसका नारद जोके साथ ऊपर माकाशको जाना आश्चर्य कारक होना चाहिए था, वैसा नहीं हुभा; क्योंकि वह पंख सहित था-जैसा कि रामायण मनाक पर्वत तथा हनुमान जी के संवादसे और पुराणवचनांसे पवोंके पंखयुक होनेसे माकाशमें उड़ने का प्रसङ्गाया है। अथवा-यह नारदजी उसके (पर्वतके) सपक्ष अर्थात पक्ष में थे या मित्र थे, अतः वे सब कुछ उसके वास्ते कर सकते थे, अतः उसका भाकाशमें गमन करना कोई भी पाश्चर्यको बात नहीं। संसारके उपदेशा होनेसे गोरवयुक्त ( पक्षा-भति. मारयुक्त) नारदजी जो भाकाशको लांघ गये-धोरे 2 नहीं गये किन्तु उछलकर बांध गये-यह आश्चर्यके लिये हुआ, क्योंकि जो जगद्गुरु है, वह स्वयं अपने लिए कोई अतिमयादित काम नहीं करता। नारद जी के साथ उनके मित्र पर्वत ऋषि भी स्वर्गको गये] // गच्छता पथि विनैव विमानं व्योम तेन मुनिना विजगाहे। साधने हि नियमोऽन्यजनानां योगिनां तु तपसाऽखि जसिद्धिः // 3 // गच्छतेति / पयि विमानं ज्योमयानं विनैव गच्छता तेन मुनिना, पोम विज. गाहे प्रविष्टम् / तथा हि, साधने उपाये नियमोऽवश्यंभावः क्रियासिदो नियमेन. साधनान्तरापेवेत्यर्थः / अन्यजनानामस्मदादीनां, योगिनां त, तपसा योगधर्मेणैः वाखिलसिद्धिः सर्वकार्यसिद्धिहि / तस्मान्महायोगिनोऽस्य किं विमानेनेति भावः। सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 3 // विना विमानके हो जाते हुए उस नारदजीने भाकाशको आलोडित कर दिया (अथवा...."अपरिमित माकाशको भालोडित कर दिया। अथवा-पक्षोके समान जाते हुए...)। क्योंकि अन्य साधन ( रथ, घोड़ा, विमान आदि ) की आवश्यकता साधारण लोगों को होती है (पिना साधनके साधारण लोग कुछ नहीं कर सकते ), योगियों को तो तपस्या से ही सब सिदि होती है, (किसी अन्य साधन के बिना उनका कोई काम नहीं रुकता) // 3 // खण्डितेन्द्रभवनाद्यभिमानालाचते स्म मुनिरेष विमानान् / अर्थितोऽप्यतिथितामनुमेने नैव तत्पतिभिरंघ्रि विनम्रः // 4 // खण्डितेति / एष मुनिः, खण्डितो निरस्तः, इन्द्र भवनादीनामभिमानोऽहारो यैस्तान्, ततोऽपि समृदानित्यर्थः / विमानान् देवगृहान् , लखने स्म अतिच काम / किंबहुना, अद्धिविनत्रैः पादपतितैः, तस्पतिमिर्विमानाध्युषितर्देवैः अधितः प्रार्थि तोऽपि, अतिथितामातिथ्य, नैवानुमेने / एतन्मात्रविलम्बं च नासहिष्टेत्यर्थः // 4 // यह मुनि नारदजः इन्द्रभवन के अभिमानको मो सुन्दरतासे चूर करने वाले अर्थात् इन्द्रमवनोंसे भी अधिक सुन्दर ('खण्डितेन्दु' पाठभेदसे-'चन्द्रशाला'संज्ञक भवनविशेषोंसे
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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