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________________ an चतुर्थः सर्गः 236 सहचरोऽसि रतेरिति विश्रुतिस्त्वयि वसत्यपि मे न रतिः कुतः ? | अथ न सम्प्रति सङ्गतिरस्ति वामनुमृता न भवन्तमियं किल / / 77 // सहचर इति / हे स्गर ! रतेः रतिदेण्याः, सन्तुष्टेच सहयोऽसीति विश्रुतिः प्रसिद्धिः। स्वयि वसति हृदयस्थे सत्यपि, मे कुतो रतिनं ? अथवा, सम्प्रति वां युवा योः सङ्गतिर्नास्ति / कुतः, इयं रतिर्भवन्तं नानुमृता किल / किलेति वार्तायाम् / अनुमरणाभावादसङ्गतिर्यक्तेत्यर्थः / अत्र प्रीतिलक्षणाया रतेदेंग्या सहाभेदाभ्यवसा. नादयमुपालामः / अत एवातिशयोक्तिरलवारः // 77 // तुम रति ( अपनी स्त्री, पक्षान्तरमें-प्रीति ) के सहचर हो अर्थात् जहाँ तुम रहते हो, वहाँ रति (रति नाम की तुम्हारी प्रिया, पक्षान्तरमें-प्रीति ) अवश्य रहती है, यह विश्रुति ( लोकमें प्रसिद्धि या विशिष्ट श्रुति = विशेष वेदवाक्य ) है; किन्तु तुम्हारे निवास करते रहने पर भी मुझे रति ( नल के साथ सहवासरूपी रति, पक्षान्तरमें-प्रीति ) क्यों नहीं है ? (तुम्हारे रहने पर उसे रहना उचित था)। अथवा-इस समय (शरजो के द्वारा तुम्हारे जलाये जाने के बाद ) तुम दोनों ( रति-काम ) का साथ नहीं है, पर तुम्हारे पीछे वह ( रति ) तो नहीं मर गयी है। ( अतः तुम रतिके सहचर हो, यह वस्तुतः विश्रुति अर्थात् विपरीत जनप्रसिद्धि ( पक्षान्तरमें-विपरीत वेदवचन ) है ] // 77 / / रतिवियुक्तमनात्मपरज्ञ ! कि स्वमपि मामिव तापितवानसि ? | कथमतापभृतस्तव सङ्गमादितरथा हृदयं मम दह्यते ? // 79 // रतीति / आत्मानं परश्च न जानातीत्यनारमपरज्ञ सर्वघातुक मार! मामिव रतिवियुक्तं स्वमात्मानमपि तापितवानसीत्युत्प्रेक्षा / कुतः, इतरथा स्वाऽसन्तापने, अतापभृतस्तापरहितस्य तव सङ्गमात् सम्पर्कान्मम हृदयं कथं दद्यते ? तप्तस्पर्शा. तापो नातप्तस्पर्शादित्यर्थः / सन्तापनादपि, स्वयमतप्तेन स्वया परसन्तापः क्रियते यथा तग्छीलैस्तप्तमुखैः शिलीमुखैरिति भावः // 78 // ___ हे अनात्मपरक्ष! अर्थात् अपना तथा पराया नहीं जाननेवाले (किस की रक्षा करनी चाहिये तथा किसकी नहीं, यह नहीं समझनेवाले कामदेव ! ) रति ( नलविषयक संसर्ग) से रहित मेरे समान रति अपनी प्रियतमा) से रहित अपनेको भी क्यों संतप्त किया है ? अन्यथा ( यदि तुम अपनेको भी नहीं सन्तप्त करते तब ) सन्ताप-रहित तुम्हारे साथसे मेरा हृदय क्यों जल रहा है ? [ कोई भी व्यक्ति अपनी रक्षा करते हुए दूसरोंको सन्ताप देता है, किन्तु तुम तो इतने दुष्ट हो कि स्वयं सन्ताप सहकर भी दूसरेको सन्तप्त कर रहे हो, अतः तुम्हारी दुष्टता अत्यधिक है // लोकमे मी ठण्डे पदार्थ के संसर्गसे कोई गर्म नहीं होता है ] // 78 // __ अनुममार न मार ! कथं नु सा रतिरिति प्रथितापि पतिव्रता / इयदनाथवधूवधपातकी' दयितयापि तयासि किमुज्झितः ? // 6 // 1. 'विरहिणीशतघातनपातकी' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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