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________________ नैषधमहाकाव्यम् / गया है, तृतीय नेत्र नहीं बनाया गया) है। [अपने पिता दक्ष प्रजापति के द्वारा पति शहरजीका अपमान देख सतीने योगाग्नि द्वारा प्राण त्यागकर पति शारजीके विरहमें कामदेवसे मतिशय सन्तप्त होकर उस तापको शान्ति के लिये भरयन्त शीतल हिमालय से जन्म ग्रहण किया है, वहां जन्म लेनेमें हिमालको प्रतिधा मादि अन्य कोई कारण नहीं है। अन्य भी कोई व्यक्ति भधिक सन्तप्त होकर भतिशय शीतल स्थानका माश्रय करता है। इसी प्रकार-सती योगाग्निमें प्राणस्यग कर देनेपर ब्रह्माने शङ्करबीके ललाटमें अतिशय तापकारक सती-विरहाक्षर ही लिखा है, वह शहरनीकी तीसरी माँख नहीं है ] // 45 // दहनजा न पृथुर्दवथुव्यथा विरहजैव पृथुर्यदि नेदृशम् / दहनमाशु विशन्ति कथं स्त्रियः प्रियमपासुमुपासितुमुधुराः // 46 // दहनेति / दहनमा अग्निदाहजन्या, दवथुग्यथा तापदुःखं, पृथुः अधिका न / किन्तु विरहजैव पृथुः / ईशंन पनि मिस्थं न चेत् / चियः, अपासुमपगतप्राणं मृतं, प्रियम, उपासितुं प्राप्तम, उत्कृष्ट पूर्भारो यास ता उद्धराः अनर्गलाः सत्य इत्यर्थः। पूर' इत्यादिना समासान्तोऽकारः। कथमाशु दहनं विशन्ति / अग्निदाहाहिरहदाह एवाधिक इत्यर्थः। तस्य तस्परिहारार्थेन स्त्रीणामग्निप्रवेशकार्येण समर्थनात् कार्येण कारणसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 46 // अग्निजन्य दाहपीडा अधिक सन्तापकारक नहीं होती, किन्तु विरहपन्य दाहपीना ही अधिक संतापकारक होती है। यदि ऐसा नहीं है तब मरे हुए पतिको सेवा ( अनुगमन) करने के लिये उरणसयुक्त सियां मग्नि में कैसे प्रवेश करती 1 / [विरहमन्य सन्तापपीडा. को नहीं सह सकनेके कारण ही खिया पतिके मरनेपर (विरहाग्निको अपेक्षा कम सन्ताप देनेवारी) चितामिमें प्रवेशकर जो सती हो जाती है उससे यह प्रमाणित होता है कि बिरहमन्य दाइपील ही भनिनन्य दाहपीडासे अधिक है ] // 4 // हृदि लुठन्ति कला नितराममूर्विरहिणीवधपटकलहिताः। कुमुदसख्यकृतस्तु बहिष्कृताः सखि ! विलोकय दुविनयं विधोः // 47 // हदीति / विरहिणीवप्रायः पङ्कः पाप्मा। 'असी पवं पुमान् पाप्मा' इत्यमरः। तेन कलहिताः सनातक, अमूकला, हदि अभ्यन्तरे नितरां लुठम्ति वर्तन्ते। कुमुदैः सम्यं कुर्वन्तीति तस्कृतः, विशुदा इत्यर्थः। तास्तु कलाः बहिष्कृताः। सखि, विधोविनयं, दोर्जन्य, विलोकय / दुर्जनाः पापिष्ठानन्त:कुर्वन्ति विशुद्धान् बहिष्कुर्वन्तीति भावः॥४७॥ " हे सखि / चन्द्रमाका दुविनय तो देखो, कि-विरहिणियों की हत्यारूपी पङ्कसे मलिन इन कलानोंको तो उसने हृदयमें धारणकिया है तथा कुमुदको विकसितकर मित्रता करनेवाली उत्तम ककामों को बाहर कर दिया है। विरहणियों के मारनेसे उत्पन्न पाप ही कान्छन रूपमें चन्द्रमाको छाती पर दौख रहे हैं, अत एक यह बड़ी दुनीतिवाला है। [यदि कोई सब्जन
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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