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________________ चतुर्थः सर्गः 215 मानो विशाल स्तनोंवाली दमयन्तीसे कह रहे थे कि तुम्हारे दोनों स्तन इसी प्रकार (जिस प्रकार हम दोनों सङ्कुचित हो रहे हैं, उसी प्रकार ) प्रिय ( नल ) के कर-ग्रहण (हाथ से पीडन अर्थात् मदन, पक्षान्तरमें-प्रिय नछके साथ पाणिग्रहण अर्थात विवाह ) को प्राप्त करेंगे, तुम क्यों खिन्न हो रही हो ?' [ इस पद्यमें भी दमयन्तीके सन्तापाधिक्य का वर्णन किया गया है ] // 30 // त्वदितरोन हदापि मया धृतः पतिरितीव नलं हृदयेशयम् / स्मरहरिमजि बोधयति स्म सा विरहपाण्डुतया निजशुद्धता // 31 // स्वदिति / सा भैमी, हृदपेशयं हृदि स्थितं, नलं स्वदितरस्सोऽन्यः, समानो वाऽन्यो बा पलिः, मया दापि न धृतः मनसापि न चिन्तितः, इति निजशुदताम् आनिता, पाहु / विरहपाण्हुतया ताजेनेत्यर्थः / स्मरहविर्भुजि बोध यति रमेज भवनाग्निमग्ना सा अग्निदिव्येन स्वशुद्धिं सीता राममिव नलं बोधयाः मासवेश्युस्प्रेक्षा / 'गतिवुद्धि' इत्यादिना अणिकर्तनलस्य जो कर्मत्वम् // 31 // ___ वह दमयन्ती विरहजन्य पाण्डुतासे, हृदयस्थित नलके प्रति 'तुम्हारे अतिरिक्त किसी अन्य पतिको मैंने हृदय अर्थात मनसे भी नहीं ग्रहण ( स्वीकार ) किया है। फिर संभा• षण या इाथ आदि के द्वारा ग्रहण करनेकी बात हो क्या है ?)' इस प्रकार कामदेवरूप अग्निमें अपनी शुद्धता जना रही थी। [जगज्जननी सीतानीने मी लङ्काविजय के बाद रामचन्द्रजीके समक्ष अपने सतीत्वको अग्निमें प्रवेशकर प्रमाणित किया था। इसी प्रकार अन्य भी व्यक्ति अपनी सत्यता प्रमाणित करने के लिये अग्नि आदि देवताओं की साक्षी देते हैं / विरहतप्तदशनिवेशिता कमलिनी निमिषदलमुष्टिभिः / किमपनेतुपचेष्टत किं पराभवितुमैहत तदव, पृथुम् / / 32 // विरहेति / विरहलाते तदने भैमीशहीरे, निवेशिता निहिता, कमलिनी पद्मलता, निमिमदिरानमद्रिदले परेव, मुष्टिभिः मुष्टिबन्धैः (करणैः) पृथं तदनथु तस्यास्ताप, अपनेतुमान्छेत्तमचेष्टत व्याप्रियत किम् / पराभवितुं तिरस्कतुमेहत किम् / अचेष्टत किमिपुस्प्रेक्षा / वस्तुन किश्चित्कर्तृ शशाक / प्रत्युत स्वयमेव दम्धे. त्यर्थः / सोऽयं भीषकस्य मयाजा इति भावः / अत एषानर्थोत्पत्तिलक्षणो विषमा. लङ्कारः / तदुस्थापिता चेयरप्रति सङ्करः // 32 // दिइसे सन्तप्त दमयन्ती-शरीरपर स्थापित कमलिनी ( सन्तापसे ) सङ्कचित होते हुए पर्णरूपी मुक्केसे उस दमयन्ती अत्यधिक सन्तापको दूर करने ( मारने ) को इच्छा करती है क्या ? अथवा उसे पराभूत करने ( जीतने या मोहित करने) की इच्छा करती है ? [ अन्य भी कोई व्यक्ति अङ्गुलियों को समेटनेसे मुट्ठी बांधकर शत्रुको मुत्केसे मारकर १'अग्निदिव्य' शलको जलदिन्छ'शब्देन व्याख्यातः। स च 2 यसर्गस्य 27 तम. श्लोकण्याख्याने द्रष्टव्यः। 15 नै०
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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