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________________ चतुर्थः सर्गः 213 विरहसे पाण्डुवर्णवाले दमयन्तीके कपोल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा (विरह जन्य) दमयन्ती मुखको श्वेततामें अपनी श्वेत किरणों ( या श्वेत भाग ) को नहीं मालूम पड़नेसे अपने कलङ्करूप मृग-चिह्नको समर्पणकर उम दमयन्ती के मुखको मित्र बना लिया। [ पहले दमयन्तीका मुख गौरवर्ण था तथा उसमें श्वेतवणं चन्द्रमा प्रतिविम्बित होता था तो स्पष्ट मालूम पड़ जाता था, अर्थात् दमयन्तीको स्वप्नावस्थामें उसका मुख चन्द्रमासे भो अधिक सुन्दर था; किन्तु इस समय विरहावस्थामें मुख पाण्डवर्ण हो गया है और उसमें प्रतिबि. म्बित पाण्डुवर्ण चन्द्रमा समानवर्ण होनेसे पृथक मालूम नहीं पड़ता, केवल उसका कलङ्कभूत मृगचिह्न मालूम पड़ता है। अन्य मी कोई चतुर व्यक्ति अपने विजेताको कोई उपहार (भेट) देकर उसको अपना मित्र बना लेता है, यहांपर चन्द्रमा अपना मृगचिह्नरूप कलङ्क दम. यस्तों के मुखको देकर उसको अपना मित्र बना लिया अर्यात् उसके मुखके समान हो गया। अथवा अन्य कोई व्यक्ति अपने दोषको दूसरे में भी लगाकर उसे अपने समान दोषयुक्त बना लेता है, वैसे चन्द्रमाने भी विरह-पाण्डु दमयन्ती मुखको कलङ्क-श्याम बनाकर अपने समान बना लिया। बिरहावस्थासे दमयन्तीका मुख मी पाण्डु वर्ण हो गया था] // 6 // विरहतापिनि चन्दनपांसुभिर्वपुषि सार्पितपाण्डिममण्डना / विषधराभबिसाभरणा दधे रतिपतिं प्रति शम्भुबिभीषिकाम / / 27 / / विरहेति / सा दमयन्ती, विरहतापिनि वपुषिचन्दनपांसुभिः, भस्मधवलैरिति भावः, मर्पितः सम्पादितः, पाण्डिमैव मण्डनं यस्याः सा, विषधराभं शेषाहिकरूपं, बिसमेवाभरणं यस्याः सा सती, रतिपतिं स्मरं, प्रति शम्भुरेवेयमिति विभीषिकां विशेषेण मयोत्पादनं, भीषयतेर्धात्वनिर्देशे ण्वुल / 'सुप्सुपा' इति समासः / न तु शम्भोधिभीषिकेति कर्तरि षष्ठीसमासः 'तृजकाभ्यां कतरि' इति निषेधात् / दधे दधार, नूनमिति शेषः / गम्योत्प्रेक्षा // 27 // विरहसे सन्तप्त रहनेवाले शरीरमें चन्दन-रेणुभोंसे श्वेत भूषणको ग्रहण करनेवाली तथा सर्पके समान मृणाल-नालरूप भषणको धारण करनेवाली दमयन्तीने कामदेवके लिए शङ्करजीकी विभीषिका ( भयङ्करता-प्रदर्शक भाव ) को धारण किया। [विरहसे सन्तापशान्ति के लिये शरीरपर लिप्त चन्दनद्रव सूखकर धूल हो गया था, वही शङ्करजीके भस्मके स्थान में था, तथा विरहताप-शान्ति के लिये हृदयादिपर स्थापित कमल-नाल (श्वेति. मा तथा दीर्घताके कारण ) शङ्करके भूषणभूत सर्प हो रहे थे, उनको धारणकर दमयन्त ने 'मैं शङ्कर हूँ' यह कामदेवके प्रति प्रमाणितकर उसे डराना चाहा, जिसमें शङ्कर समझकर कामदेव मुझसे डरकर पीडा देना छोड़ दे / शङ्कर जीने अपने तृतीय नेत्रको अग्निसे काम. देवको भस्मावशेषकर डाला था, अतः दमयन्तीने कामदेवको डराने के लिये उक्त प्रकारसे शंकर का रूप धारण किया। अन्य भी कोई व्यक्ति अपने शत्रुको हराने के लिये उससे भी प्रबल शत्रुका रूप धारणकर उसे डराना चाहता है / विरह संतापाधिक्यसे दमयन्तीके हृद.
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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