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________________ 200 नैषधमहाकाव्यम् / उद्दीपनारिमका, परिणतिः परिपाकः, समपद्यत साता / अत एव ज्वरशान्त्यर्थाः इसमजमनात्तदुद्रेकरूपानर्थोत्पत्तेविषमालङ्कारभेदः / 'विरुदकार्यस्योत्पत्तिर्यत्रान. र्थस्य वा भवेत् / विरूपघटना वा स्याद्विषमालंकृतिविधा // ' इति लक्षणात् / एतेन बादशावस्थापक्षे नवमी संज्वरावस्थोक्ता / तदुक्तं-'चतुःप्रीतिभनःसनः सङ्कल्पोऽथ प्रलापिता। जागरः कार्यमरतिर्लज्जास्यागोऽथ संज्वरः / उन्मादो मूर्छनं चैव मरण. अरमं विदुः।' इति // 2 // कामज्वर (पक्षान्तरमें-अधिक ज्वर) गीडित उस दमयन्तीने जो नल-कथारूपी तडागके जल (पक्षान्तरमें-विप्रलम्म शृङ्गार रस ) में मज्जन ( स्नान ) किया अर्थात डुबकी लगायी, उसका शीघ्र ही बहुत अधिक सन्ताप देनेवाला भयङ्कर परिणाम हो गया। [ दम. यन्तीने नलविरहमें कामज्वरसे पीड़ित होकर उसको शान्ति के लिये सखो आदिकं द्वारा नल के गुणों को प्रेमसे मना, किन्तु कामपीहा शान्त होने के बदले और अधिक बढ़ गयी। अन्य भी कोई ज्वरसे सन्तप्त रोगी सन्ताप की शान्ति के लिये तडागके जल में ( ठंढा होनेसे सन्ताप को शान्त करनेवाला समझकर ) यदि स्नान करता है, तो उसका मयङ्कर फल हो जाता है अर्थात ज्वर-सन्ताप शान्त होने के बदले अधिक बढ़ जाता है, वही दशा दमयन्ती की भी हुई ] // 2 // ध्रुवमधीतवतीयमधीरतां दयितदूतपतद्गतिवेगतः / स्थितिविरोधकरी द्वयणुकोदरी तदुदितः स हि यो यदनन्तरः // 3 / / - ध्रुवमिति / एषणुकोदरी सूचममध्या, इयं दमयन्ती, स्थितिमर्यादा गतिनि. त्तिश्च, तद्विरोधकरी, तद्विरोधहेतुमित्यर्थः / गत्युत्पत्तेस्तत्प्रागभावविरोधिस्वादिति भावः। 'कृयो हेतु' इत्यादिना हेस्वर्थे टप्रत्यये ङीष / अधीरतां चपलताम्, एकधान. वस्थानलक्षणां, दयितदूतो यः पतन् पतत्री हंसः / 'पतत्पत्ररथाण्डजा' इत्यमरः / तस्य गतिवेगतः गमनवेगावधीतवती गृहीतवती, प्राप्तवतीत्यर्थः। एतेन चापलास्यः सञ्चारी भाव उक्तः। 'चापलं स्वनवस्थानं रागद्वेषादिसम्भवम्' इति लसणात् / तस्य हंसपश्वेगजन्यस्वमुस्प्रेक्षते-ध्रुवमिति / ननु कथमन्यवेगादन्यत्र कियोत्पत्तिरित्या शंक्य यदनन्तरम्यायेन समर्थयति / योऽर्थो यस्यानन्तरस्सविहितः स तस्मादु. दित उत्पक्ष इस्युरप्रेतार्थान्तरन्यासयोरङ्गालिभावेन सकरः // 3 // कृशोदरी उस दमयन्तीने प्रिय-दूत हंसके पंखों के वेगसे ( स्त्री-) मर्यादा-विरोधिनी अधीरताको धारण किया (सीखा ) अर्थात प्रिय नल के दूत हंसके उड़कर चले जानेपर अधीर हो गयी; क्योंकि जिसके बाद जो होता है, वह उसीसे उत्पन्न समझा जाता है / [इसका उड़ना स्थिरताविरुद्ध (चंचल = अधैर्ययुक्त ) था, अत एव उसके जाने के बाद दम. यन्तीको जो अधीरता हो गई है, वह मानों उसी हंस-गमन-शिक्षासे ही उत्पन्न हुई है]॥३॥ अतितमा समपादि जडाशयं स्मितलवस्मरणेऽपि तदाननम् / अजनि पङ्गरपाङ्गनिजाङ्गणभ्रमिकणेऽपि तदीक्षणखञ्जनः // 4 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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