SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयः सर्गः 163 दिति भावः / स्वरितेश्वात्तक / स पुष्पेषुर्वितनुरनमः सन् अधुना तजयाय नलविजयावामेवाश्रमं तपोवनमाश्रयत् आश्रितवान् तपश्चर्यार्थमिति शेषः / अन्य. था कथं तं जेष्यतीति भावः / अतएव स्वदुरोज एव शैलो निलयो यस्याः सा तखि ष्ठेत्यर्थः / पत्रालिः पत्ररचना पर्णचयश्च तस्य कामस्य पर्णशालायते सेवाचरति / उपमानात् कर्तः क्या / अत्र पूर्वाः शरचापादीनां पूर्वोक्तपुष्पादिविषयनिगरणेन तदभेदाध्यवसायानेदे अभेदलक्षणातिशयोक्तिः, तत्पर्णशालायत इत्युपमा चोस्था. पितेन स्वमाश्रममिति रूपकेण सङ्कीर्णा व्यञ्जकाप्रयोगाद्या कामस्याश्रमाश्रयणो. स्प्रेदेति सहरः // 128 // उस ( नल ) से ( सौन्दर्यमें ) हारे हुए जिस कामदेवने खेदसे विरक्त होकर तुम्हारे केशों में बाणसमूहको फेंक दिया, तुम्हारे ललाटमूलमें धनुषको फेंक दिया तथा शिवनीके ( पक्षा-दारण = भयङ्कर ) नेत्ररूप भाड़में अपने शरीरको फेंक दिया; वह कामदेव इस समय उस नलको जीतने के लिए वितनु ( विशेष दुर्बल, पक्षा०-शरीरहीन ) होकर तुम्हारा मात्रय किया है और तुम्हारे स्तनरूप पर्वतपर वर्तमान पत्रालि ( पत्तोंका समूह, पक्षा०-चन्दनादिरचित पत्रावलि ) उस ( कामदेव ) को पर्णशालाके समान हो रही है। | जिस प्रकार किसी प्रब कसे पराजित दुर्बल व्यक्ति दुःखसे खिन्न होकर अपने बाण, धनुष तथा अपने शरीरतकको फेंक देता है और उस प्रबल को जीतने के लिए किसीका आश्रयकर कामदेव ने किये हैं / तुम्हारे केशसमहमें लगे हुए पुष्प कामदेवके बाण-समूह हैं, तुम्हारा भ्र-कामदेवका धनुष है, शिवजीका नेत्र भयङ्कर (शीघ्र जलानेवाला )-माड़ है, तुम्हारे विशाल स्तन-पर्वत हैं तथा उनपर चन्दनादिसे बनायी गयी पत्रावलि-पत्तों की झोपड़ी है। भब तक तो नरूने कामदेवको जीत लिया था, किन्तु अब कामदेव तुम्हारे सहारेसे नसको जीतेगा अर्थात् तुम्हें पाकर नल कामके वशीभूत होंगे] // 128 // इत्यालपत्यथ पतत्त्रिणि तत्र भैमी सख्यश्चिरात्तदनुसन्धिपराः परीयुः / शर्मास्तु ते विसृज मामिति सोऽप्युदीर्य वेगाजगाम निषधाधिपराजधानीम्।। इतीति / तत्र तस्मिन् पतस्त्रिणि हंसे भैमीमिति इस्थमालपति भाषमाणे सति अथास्मिनवसरे चिरात्प्रभृति तस्या भैम्या अनुसन्धिरन्वेषणम, 'उपसर्गे घोः किरिति किः / तस्पराः सख्या परीयुःपरिवः, इणो लिट् / हंसोऽपि 'ते तव शर्मास्तु मुखमस्तु, मां विसृज' इत्युदीयं उक्त्वा वेगाविषधाधिपराजधानी जगाम // 129 // इसके बाद उस हंसके दमयन्तीसे ऐसा ( 31100-128 ) कहते रहनेपर उसे ( दमयन्ती को ) खोजने में तत्पर सखियोंने दमयन्तीको चारो तरफ से घेर लिया। वह हंस भी 'तुम्हारा कल्याण हो, मुझे छोड़ो अर्थात् विदा करो' ऐसा कहकर वेगसे नल को राजधानी
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy