SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयः सर्गः। 15 शेषः / तत्रेन्दुमण्डलादौ कंसादिरूपणादेवस्मरस्य कार्यकारणरूपसिद्धेरेकदेशविवर्ति रूपकम् // 122 // कामदेवने तुम दोनों के पारस्परिक अनुरागको बराबर करने ( तौलने ) में किरणसमुहसे युक्त ( पक्षा०-रस्सियोंसे बंधे हुए ) चन्द्रमण्डलको कांसेका पलडा और अपने बाणको तराजू ( की डण्डी ) बनाया था। [ कामदेवने किरणयुक्त गोल चन्द्रमण्डलको रस्सीसे बंधा हुआ कांसेका पलड़ा तथा अपने बागको तराजूका डण्डी बनाकर तुम्हारा तथा नलके परस्परानुरागको तौलकर बराबर किया है, यही कारण है कि नलमें तुम्हारा जितना अधिक अनुराग है, उतना ही अधिक अनुराग तुममें भी नलका है ] // 122 // सत्त्वसुतस्वेदमधूत्थसान्द्रे तत्पाणिपञ मदनोत्सवेषु / लग्नोस्थितास्त्वत्कुचपत्ररेखास्तनिर्गतास्तत् प्रविशन्तु भूयः / / 123 / / सत्वेति / किं च मदनोत्सवेषु रतिकेलिषु सत्त्वेन मनोविकारेण सतो यः स्वेदः सात्त्विकविकारविशेषः तेनैव मधूत्थेन मधूच्छिष्टेन सान्द्रे निरन्तरे अत एव तस्य नलस्य पाणिपञ लग्नाः संक्रान्ताः / अतएव उत्थिताः त्वत्कुचतटाद्विश्लिष्टाः। मधू. च्छिष्टे निकषस्थकनकरेखावदिति भावः। स्नातानुलिप्तवत्पूर्वकालसमासः। तन्नि र्गताः / तत्पाणिपद्मोत्पन्नाः त्वत्कुचपत्ररेखाः भूयः तत् पाणिपञ 'वा पुंसि पद्मं नलि. नमि'त्यमरः / प्रविशन्तु / कार्यस्य कारणे लयनियमादिति भावः। युवयोः समा. गमोऽस्तु इति तात्पर्यम् // 123 // कामोत्सवों में सात्त्विक भावसे उत्पन्न पसीना रूपि मोमसे सान्द्र, नलके हस्तकमलमें पहले लगकर ( संसक्त होकर ) उठी हुई तुम्हारे स्तनोंपर बनायी गयी पत्रावलियां नलके हाथसे निर्गत ( नलके हाथसे बनी हुई ) होनेसे फिर उसीमें प्रविष्ट हो जांय / [नल अपने हस्तकमलसे तुम्हारे स्तनद्वयपर पत्रावलियोंकी रचनाकर रति करनेके समय उन स्तनोंका स्पर्श करेंगे तो सात्त्विक भावसे उत्पन्न पसीनेसे वे पत्रावलियां उनके हाथमें उस प्रकार अङ्कित हो जायेंगी, जिस प्रकार मोमके वने ठप्पेपर कोई चित्रादि अङ्कित हो जाता है' इस प्रकार नलके हाथसे ही बनायी गयी कार्यरूपिणी पत्रावलियां पुनः कारण रूप नलके हाथमें लीन हो जायें। कारणमें कार्य का लय होना उचित ही है। तुम्हारे स्तनद्वयपर अपने हाथसे बनाये गयी पत्रावलियोंको रतिकालमें नल सात्त्विकभावसे स्वेदयुक्त हाथसे पोंछे ] // 123 / / बन्धात्यनानारतमजयुद्धप्रमोदितैः केलिवने मरुद्रिः। प्रसूनवृष्टिं पुनरुक्तमुक्तां प्रतीच्छतं भैमि ! युवां युवानौ / / 124 / / बन्धेति / किं च हे भैमि ! बन्धेरुत्तानादिकरणः कामतन्त्रप्रसिद्धैराढ्य समग्रं नानारतमुत्तानकादिविविधसुरतं तदेव मल्लयुद्धं तेन प्रमोदितैः सन्तोषितैः केलिवने मरुद्भिः वायुभिर्देवैश्च 'मरुतौ पवनामरौ' इत्यमरः / पुनरुक्तं सान्द्र यथा तथा मुक्तां
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy