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________________ 176 नैषधमहाकाव्यम् / उन्मादावस्थां प्राप्यतत्तदनुचितं वचनमवीवदत् वादयतिस्म। वदतेौँ चडि 'गतिबुद्धी त्यादिना वदेरणि कर्तुः कर्मत्वम् / प्रकृतिस्थस्यायं दोषो न कामोपहत. चेतसि इति भावः // 97 // ऐसा ( 375-96 ) कहनेवाली दमयन्तीने जो लज्जाको छोड़ दिया, वह हम लोगोंके मन में अनुचित भले ही मालूम हो, किन्तु उस ( दमयन्ती) के निर्दोष होनेमें कामदेव साक्षी है, जिसने उसे उन्मादयुक्त करके उससे वह ( 375-96 ) कहलवा दिया। ( उन्मादयुक्त पुरुषका कोई अपराध नहीं माना जाता, अतः कामोन्मादयुक्त बाला दमयन्ती ने युवती के समान लज्जा त्यागकर वह सब कह दिया तो उसमें उसका कोई दोष नहीं मानना चाहिये / / 97 / / उन्मत्तमासाद्य हरः स्मरश्वद्वावप्यसीमा मुदमदहेते। पूर्वस्मरस्पर्षितया प्रसूनं नूनं द्वितीयो विरहाधिनम् / / 66 / / कामो वा किमर्थमेवं कारयतीत्याशङ्कय तस्यायं निसर्गो यदुन्मत्तेन क्रीडतीति सदृष्टान्तमाह-उन्मत्त मिति / हरः स्मरश्च द्वावपि उन्मत्तमासाद्य असीमां दुरन्तां मुदमुद्हेते दधतुः / वहेः स्वरितेवादात्मनेपदम् किन्तु तत्र निर्देशक्रमात् पूर्वो हरः स्मरस्पद्धितया स्मरद्वेषित या प्रसूनं धुत्तरकुसुमं तस्यायुधतयेति भावः। अन्यस्तु द्वितीयः स्मरस्तु विरहाधिदून विरहन्यथादुःस्थमुन्मादावस्थापनमित्यर्थः। अन्यत्र विनोदलाभादित्यर्थः / 'उन्मत्त उन्मादवति धुत्तरमुचुकुन्दयोरिति विश्वः / उभयोरभेदाध्यवसायात् समानधर्मत्वविशेषणमत्राश्लेषात्प्रकृताप्रकृतगोचरत्वाच उभयश्लेषः तेन हरवत् स्मरोऽप्युन्मत्तप्रिय इति उपमा गम्यते // 98 // शिवजी तथा कामदेव-दोनों ही उन्मत्तको प्राप्तकर परस्पर स्पर्धापूर्वक असीम हर्ष को पाते हैं, उनमें पहला (शिवजी) उन्मत्त पुष्प अर्थात् धतूरेके फूलको तथा दूसरा कामदेव उन्मत्त अर्थात् प्रिय-विरहसे सन्तप्त होनेसे उन्मादयुक्त व्यक्तिको प्राप्तकर असीम हर्ष पाते हैं / शिवजी तथा कामदेव एक दूसरेके शत्रु हैं, अतः प्रथम शिवजी पुष्पवाण कामदेवके बाणरूप उन्मत्तपुष्प (धतूरेके फूल) को पाकर तथा कामदेव धतूर पुष्पसे प्रसन्न होते हुए. शिवजीको देखकर मुझे भी उन्मत्त (उन्मादयुक्त व्यक्ति) को पाकर हर्षित होना चाहिए, यह जानकर प्रिय-विरहित उन्मत्त व्यक्तिको पाकर हर्षित होता है। अथ च-कामदेव शिवजीके गणभूत उन्मत्त पिशाचको पाकर हर्षित होता है / शत्रुकी प्रिय वस्तुको वशमें करनेपर हर्ष होना सर्वविदित है / कामदेव शिवजीसे तथा शिवजी कामदेवसे अधिक इषित होना चाहते हैं, अतः दोनों हषित होनेके लिए परस्परसे स्पर्धा किए हुए हैं, शत्रुके साथ किसी बातमें स्पर्धाकर उससे आगे बढनेकी इच्छा होना भी लोक-विदित है ] // 98 // तथाऽभिधात्रीमथ राजपुत्रीं निणाय तां नंषधषद्धरागाम् / अमोधि पञ्चपुटमौनमुद्रा विहायसा तेन विहस्य भूयः || 6 |
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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