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________________ तृतीयः सर्गः। 165 नलस्य मयि विषये स्वदथं तुभ्यं, 'चतुर्थी तदर्थे'त्यादिना चतुर्थी समासः,'अर्थे न सह निस्यसमासो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्यम् / तद्यत्तथा अर्थित्वकृतिः अर्थित्वभजनं तत्र प्रतीतिर्विश्वासः कीटक स्थान स्यादित्यर्थः / तस्मादसंदिग्धं वाच्यमिति भावः // तो तुम्हारे लिए याचना करनेवाले मेरे विषयमें नलका कैसे विश्वास रह जायेगा [ अर्थात् सर्वदाके लिए मुझसे उनका विश्वास उठ जायेगा, अतः विना दृढ़ निश्चय किये मैं नलसे तुम्हारे लिए नहीं कहना चाहता] / / 72 // त्वयाऽपि कि शढिविक्रियेऽस्मिन्नधिक्रिये वा विषये विधातुम् / इतः पृथक् प्रार्थयसे तु यद्यत्कुर्वे तदुर्वीपतिपुत्रि ! सर्वम / / 73 // अन्यथा तथा वक्तुं न शक्यते तर्हि ततोऽन्यदीप्सितं करिष्ये प्रतिज्ञाभनपरि. हारायेत्याह-त्वयेति ! हे उर्वीपतिपुत्रि ! भैमि ! त्वयापि वा किं विधातुं किं कर्तु शङ्कितविक्रिये सम्भावितविपर्यये अस्मिन् विषये राजपाणिग्रहणसंघटनकार्ये अहम् , अधिक्रिये विनियुज्ये, अनियोज्य इत्यर्थः / करोतेः कर्मणि लट् , किन्तु इतः पृथगस्मादन्यत् यद्यत्प्रार्थयसे सत्सर्वं कुर्वे करोमीत्यर्थः // 73 // तुम भी परिवर्तनकी सम्भाबना वाले इस ( नल-विवाहरूप ) विषयमें कार्य करनेके लिए मुझे क्यों अधिकारी बनाती हो ? अतः हे राजकुमारी दमयन्ती ! इससे भिन्न जो जो तुम चाहोगी, वह सब मैं करूँगा / / 73 // श्रवःप्रविष्टा इव तगिरस्ता विधूय वैमत्यधुतेन मूर्ना / ऊचे हिया विश्लाथतानुरोधा पुनर्धरित्रीपुरुहूतपुत्री / / 74 / / श्रव इति / धरित्रीपुरुहूतपुत्री भूमीन्द्रसुता भैमी अवाप्रविष्टा इव न तु सम्यक प्रविष्टाः तद्विरो हंसवाचः / वैमत्येन असम्मत्या धुतेन कम्पितेन मूर्ना विधूय प्रतिषिध्य हिया का विश्लथितानुरोधा शिथिलितवृत्तिस्त्यक्तलजा सती पुनरप्यूचे उवाच // 74 // कानमें प्रविष्ट हुएके समान उस हंस के वचनोंको असम्मतिसे कम्पित किये गये मस्तक से निकालकर लज्जासे शिथिलित अनुरोध वाली अर्थात् अत्याज्य लज्जाको भी शिथिल, की हुई राजकुमारी दमयन्ती बोली। [हंसके कहनेपर ऐसा कहीं हो सकता कि मैं पिताकी आज्ञासे या स्वेच्छासे दूसरे युवकका वरण कर लूं' इस अभिप्रायसे निषेध करती हुई दमयन्तीने जब मस्तकको हिलाया, तब ऐसा ज्ञात होता था कि हंसोक्त अनभिलषित वचन जो उसके कानों में घुस गये हैं, उन्हे निकालने के लिए उसने मस्तक हिलाया हो. लोकमें भी कानमें अनिभिलषित कीड़ा आदि घुसनेपर मस्तकको हिलाकर लोग उसे बाहर करते है ] // 74 / / मदन्यदानं प्रति कल्पना वा वेदस्त्वदीये हृदि तावदेषा /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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