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________________ नैषधमहाकाव्यम् / गयी हैं, अतः इस वचनके श्लेषयुक्त होनेसे हंसको नलविषयक दमयन्तीके अनुरागमें यद्यपि अधिक सन्देह नहीं रह गया है किन्तु थोड़ा सन्देह अवश्य ही रह गया है; अतएव 'किचन' (कुछ ) शब्दका यहाँ प्रयोग हुआ है ] // 61 // करेण वान्छेव विधुं विधतुं यमित्थमात्यादरिणी तमर्थम् / पातुं अतिभ्यामपि नाधिकुर्वे वर्ण श्रुतेर्वर्ण इवान्तिमः किम / / 62 // करेणेति / हे भैमि ! करेण विधुं चन्दं विधनुं ग्रहीतुं वान्छेव यमर्थमित्थं 'द्विजराजपाणिग्रहे'त्याद्यक्तप्रकारेण आदरिणी आदरवती सती आत्थ ब्रवीषि, 'ब्रवः पञ्चा. नामिति ब्रुवो लटि सिपि थलादेशः अवश्वाहादेशः 'आहस्थ' इति हकारस्य थकारः। तमर्थमन्ते भवोऽन्तिमो वर्णः शूद्रः, 'अन्ताच्चेति वक्तव्यमिति इमच / श्रतेवर्ण वेदाशरमिव श्रुतिभ्यां पातुं श्रोतुमपीत्यर्थः / नाधिकुर्वे नाधिकार्यस्मि किम् ? अस्म्ये. वेत्यर्थः / अतः सोर्थो वकम्य इति तात्पर्यम् // 2 // चन्द्रमाको हाथसे पकड़नेकी इच्छाके समान आदरयुक्त (या-निर्भय होकर ) जिस प्रयोजनको तुम कह रही हो, वेदके अक्षरोंको शूद्रके समान मैं उस प्रयोजनको सुननेका भी अधिकारी नहीं हूँ क्या ? / [ तुम्हारे समझसे यद्यपि मैं तुम्हारे उक्त अभीष्टको सिद्ध नहीं कर सकता, किन्तु उसको सुनने का भी मैं अधिकारी नहीं हूँ क्या ? अर्थात् उसे मुनने का अवश्य अधिकारी हूँ / अथ च-मैं ही उस प्रयोजन को पूर्ण करूँगा अतएव उसे मुननेका मैं ही अधिकारी हूँ, इसलिए अपना मतलब तुम्हें स्पष्ट करना चाहिये / चन्द्रमाको हाथसे ग्रहण करनेकी अभिलाषा को तो लज्जावश ही कहा गया है, वास्तविकमें तो इलेष द्वारा राजा नलसे विवाहकी अभिलाषा होनेमें ही मुख्यतः तात्पर्य है यह बात 'इव' शब्ददारा 'चन्द्रमाको हाथसे पकड़ने की इच्छाके समान' अर्थ करनेसे सूचित होती है ] / / 62 // अर्थाप्यते वा किमियद्भवत्या चित्तैकपद्यामपि वर्तते यः। यत्रान्धकारः खलु चेतसोऽपि जि तरब्रह्म तदप्यवाप्यम् / / 63 / / ननु तमर्थमत्यन्तदुर्लभत्वाद्वक्तुं जिहेमीस्याशझ्याह-अर्थाप्यत इति / हे भैमि ? भवत्या किंवा इयदेतावद्यथा तथा अर्थाप्यते किमर्थमयमर्थो द्विजराजपाणिग्रहवदति दुर्लभरवेनास्यायत इत्यर्थः। अर्थशब्दात्तदाचष्टे इत्यर्थे णिचः 'अर्थवेदसत्यानामापुग्वकम्य' इत्यापुगागमः / कृतस्तथानाख्येय इत्यत आह-योऽर्थ एकः पादो यस्यामित्येकपदी एकपादसवारयोग्यमार्गः / 'वर्त्तन्येकपदीति चेत्यमरः / 'कुम्भीपदीषु चेति निपातनात् साधुः। चित्तैकपयां मनोमार्गेऽपि वर्तते चतुरायविषयत्वेऽपीत्यपिशब्दार्थः। स कथं दुर्लभ इति भावः / तथाहि-यत्र यस्मिन् ब्रह्मणि विषये चेतसोड प्यन्धकारः प्रतिबन्धः तद् ब्रह्म जिह्येतरैरकुटिलैः कुशलधीभिरिति यावत् / अवाप्यं सुप्रापम् अमनोगम्यं ब्रह्मापि कैश्चिद् गम्यते, किमुत मनोगतोऽयमर्थः / अतएवार्थापत्तिरकारः। 'मुत्वेनार्यान्तरापतनमापत्तिरि'ति वचनात् // 13 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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