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________________ 152 नैषधमहाकाव्यम् / रादित्वात् साधुः। तस्य उपभोगं तादृग भोगमित्यर्थः। तस्येन्द्रसदृशेश्वर्यत्वादिति भावः / अम्बुजिन्या दुर्लभमिन्दुपरिग्रहाभावात्तया दुरापंज्योत्स्नोत्सवं चन्द्रिकाभो. गम् इन्दोः कर्तः परिग्रहेण कुमुदान्यस्यां सन्तीति कुमुदिनीव, 'कुमुदनड. वेतसेभ्योड्मतुप , 'मादुपधायाश्चेत्यादिना मकारस्य वकारः / नलस्य कर्तुराश्रयेण नलस्वीकरणेन अन्या लभते, बतेति खेदे। ईदृग्भोगोपेक्षिणी त्वं बुद्धिमान्द्यात् न शोचसि इति भावः // 45 // जिस प्रकार चन्द्रमाके सम्बन्धसे कमलिनीके लिगे दुर्लभ चन्द्रिकोत्सवको कुमुदिनी पाती है, उसी प्रकार तुमसे दुर्लभ ( हमलोगोंके पङ्खको हवा करना आदि) स्वर्ग-भोगको नलके आश्रयसे दूसरी स्त्री प्राप्त कर रही है यह खंद है। [ क्योंकि अन्य स्त्रियां वैसी नलके योग्य नहीं हैं, जैसी तुम हो / ऐसा कहकर हंसने नलमें दमयन्तीका विशेष अनुराग बढ़ाने का प्रयत्न किया है ] / / 15 / / तन्नैषधानूढतया दुरापं शर्म त्वयाऽस्मत्कृतचाटुजन्म / 'रसालवल्ल्या मधुपानुविद्धं सौभाग्यमप्राप्तवसन्तयेव // 46 // तदिति / किञ्च तत्प्रसिद्धमस्माभिः कृतेभ्यः प्रयुक्तेभ्यश्चाटुभ्यः प्रियवाक्येभ्यो जन्म तस्य तत्तजन्यमित्यर्थः। चाटुग्रहणं पूर्वोक्तनिजपक्षवीजनाद्यपलक्षणं, शर्म सुखं स्वबा अप्राप्तो वसन्तो यया तया वसन्तानधिष्ठितयेत्यर्थः / रसालवल्ल्या सहकार• श्रेण्या मधुपानुविद्धं सौभाग्यं रामणीयकमिव नैषधेन नलेन अनूढतया अपरिणी. तत्वेन हेतुना दुरापन्तस्मात्ते नलपरिग्रहाय यत्नः कार्य इति भावः // 46 // (हंस प्रकृतका उपसंहार करता हुआ कहता है-) इस कारण नलके द्वारा विवाहिता नहीं होनेसे तुम्हारे लिए हमलोगोंकी चाटुकारितासे उत्पन्न आनन्द उस प्रकार दुर्लभ है, जिस प्रकार वसन्त ऋतुको नहीं प्राप्त की हुई आम्रवल्ली, ( आम-लता, पाठा०-आमकी बगीची ) को भ्रमरकृत सौभाग्य दुर्लभ होता है / [ इस उपमासे राजहंसने स्पष्ट कह दिया कि वसन्त काल आनेपर आम्रवल्ली के लिए भ्रमरकृत सौभाग्य जिस प्रकार पर्याप्त मात्रामें सुलभ हो जाता है, उसी प्रकार नलके साथ विवाह करनेपर तुम्हें भी हमारी चाटुकारिता से उत्पन्न आनन्द सुलभ हो सकता है। पूर्व इलोक (3 / 45 ) में अम्बुजिनीको उपमा देकर उक्त स्वर्गभोगको दमयन्तीके लिए सर्वधा असम्भव बतलाकर नलके साथ विवाह करने पर सम्भव बतलाया है / यहां उसे सम्भव बतलाकर उसको पानेका प्रयत्न करनेके लिए दमयन्तीको उत्साहित किया है ] // 46 / / तस्यैव वा यास्यसि किं न हस्तं दृष्टं विधेः केन मनः प्रविश्य ? / अजातपाणिग्रहणाऽसि तावद्रूपस्वरूपातिशयाश्रयश्च / / 47 // 1. 'रसालवन्या' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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