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________________ 120 नैषधमहाकाव्यम् / पौराणिक कथा-पहले मार्कण्डेय मुनिने विष्णु भगवान्से वरदान पाकर उनके उदर में प्रविष्ट होकर संसार को देखा था। सममेणमदैयदापणे तुलयन् सौरभलोभनिश्चलम् / पणिता न जनारवैरवैदपि कूजन्तमलिं मलीमसम् / / 12 // सममिति / यस्या नगर्या आपणे सौरभलोभनिश्चलं गन्धग्रहणनिष्पन्दं ततः क्रियया दुर्बोधमित्यर्थः / मलीमसं मलिनं सर्वाङ्गनीलमित्यर्थः / अन्यथा पीतमध्यस्यालेः पीतिम्नैव व्यवच्छेदात्, अतो गुणतोऽपि दुर्घहमित्यर्थः / 'ज्योत्स्नातमिस्र'त्यादिना निपातः / अलिं भृङ्गमेणमदैः समं कस्तूरीभिः सह तुलयन तोलयन पणिता विक्रेता कूजन्तमपि जनानामारवैः कलकले नावेत् , शब्दतोऽपि न ज्ञातवान् इत्यर्थः / इह निश्चलस्याले गुञ्जनं कविना प्रौढवादेनोक्तमित्यनुसन्धेयम् / अत्राले. नल्यादेणमदोक्तेः सामान्यालङ्कारः। 'सामान्यं गुणसामान्ये यत्र वस्त्वन्तरैकते'ति लक्षणात् / तेन भ्रान्तिमदलङ्कारो व्यज्यते // 92 // जिस ( कुण्डिनपुरी ) के बाजार ने कस्तूरीके साथ, सुगन्धके लोभसे नहीं उड़ते हुए तथा गुञ्जन करते हुए काले (कस्तूरीके रंगवाले) भौरोंको कस्तूरीके साथ तौलते हुए दुकानदारको. खरीददार लोगोंके कोलाहलसे नहीं जान सका / [ जब दुकानदार कस्तूरी तौलने लगा तब उसके सुगन्धसे आकृष्ट भौंरा उसके कांटेके पलड़े पर बैठकर निश्चल हो गया, तथा वह यद्यपि गूज रहा था, किन्तु लोगोंके कोलाहलके कारण गूजना भी ज्ञात नहीं हुआ एवं समान रंग होनेसे कस्तूरीके साथ भौरेको भी दूकानदारने तौल दिया और इस बातको खरीददार नहीं जान सका / भौरे घूमते रहने पर ही गूजते हैं, बैठने पर नहीं, तथापि यहां पर महाकविने बैठे हुए भौरेका गूजना प्रौढिवश कहा है ] // 92 / / विकान्तमयन सेतुना सकलाहज्वेलनाहितोष्मणा / शिशिरे निशि गच्छतां पुरा चरणौ यत्र दुनोति नो हिमम् / / 63 / / रबिकान्तेति / यत्र नगाँ सकलाहः कृत्स्नमहः 'राजाहःसखिभ्यष्टच' / 'रात्राहाहाः पुंसी ति पुंल्लिङ्गता, अत्यन्तसंयोगे द्वितीया, योगविभागात्समासः / ज्वलनेन तपनकराभिपातात्प्रज्वलनेन आहितोष्मणा जनितोष्मणा जनितोष्णेन रविकान्तमयेन सेतुना सेतुसदृशेनाध्वना सूर्यकान्तकुटिमाध्वनेत्यर्थः / गच्छता सञ्चरतां चरणौ चरणानित्यर्थः / 'स्तनादीनां द्वित्वविशिष्टा जातिः प्रायेणे'ति जाती द्विवचनम् / शिशिरे शिशिरतौं तत्रापि निशि हिमं पुरा नो दुनोति नापीडयत् / 'यावत्पुरानिपातयोर्लट' / अत्र सेतोरूष्मासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः, तत्रोत्तरस्याः पूर्वसापेक्षत्वात् सङ्करः // 93 // जिस ( कुण्डिनपुरी ) में पहले दिनभर ( सूर्य-किरण-सम्पर्कसे निकली हुई ) अग्निसे उष्ण, सूर्यकान्तमणियोंके बने हुए पुलसे शिशिर ऋतुमें जानेवाले लोंगोंके चरणोंको शीत पीड़ित नहीं करता था // 93 / /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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