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________________ द्वितीय सगः 117 कर उन्हें शीघ्र घर पहुँचनेके लिए प्रेरित करता था, इस प्रकार चक्कियों तथा मेघोंके साथ कलह होता था, वह भी कलहरूप घर्घर शब्द आज भी मेघोंको नहीं छोड़ रहा है / / 85 // वरणः कनकस्य मानिनी दिवमलादमराद्रिरागताम / घनरत्नकवाटपक्षतिः परिरभ्यानुनयन्नुबास याम || 86 / / वरण इति / कनकस्य सम्बन्धी वरणः तद्विकारः प्राकारः स एवामराद्रिमरुः यां नगरीमेव मानिनी कोपसम्पन्नामत एव अङ्कान्निजोत्सङ्गादागतां भूलोकं प्राप्तां दिव. मरावतीं घने निबिडे रत्नानां कवाटे रत्नमयकवाटे एव पक्षती पक्षमूले यस्य स सन् परिरभ्य उपगूह्य मेरोः पक्षवत्त्वात्पक्षतिरूपत्वमनुसरन् अनुवर्तमानः उवास। कामिनः प्रणयकुपितां प्रेयसीमाप्रसादमनुगच्छन्तीति भावः / रूपकालङ्कारःस्फुट एव, तेन चेयं नगरी कुतश्चित् कारणादागता द्यौरेववरणश्च स्वर्णादिरेवेत्युत्प्रेक्षा व्यज्यते। ___ मानिनी ( अत एव रुष्ट होकर ) अङ्क अर्थात् क्रोडको छोड़कर ( भूलोकपर ) आयी हुई दिव अर्थात् स्वर्गरूपिणी जिस ( कुण्डिनपुरी) नगरीको सघन रत्नोंसे बने हुए किवाड़रूप दो पक्षोंको धारण करता हुआ स्वर्णसे बने चहारदिवारीरूप सुमेर पर्वत आलिङ्गन कर प्रसन्न करता हुआ निवास कर रहा है / / [ 'दिव' ( स्वर्गपुरी ) पहले सुमेरु पर्वतके अङ्कमें रहती थी, किन्तु किसी कारणवश मानिनी होनेसे रुष्ट होकर वह उसके अङ्कको छोड़कर यहां पृथ्वीपर आ गयी हैं और वहीं कुण्डिनपुरी है, अत एव अपनी प्रेयसीको प्रसन्न करने के लिये सुवर्णमय चहारदिवारीरूप होकर बहुरत्नरचित कपाटरूप पङ्खोंको धारण करता हुआ सुमेरुपर्वत भी पृथ्वीपर आकर अपनी प्रेयसी कुण्डिननगरी रूपिणी 'दिव' का आलिङ्गन कर उसे प्रसन्न करता हुआ यहां निवास कर रहा है। कुण्डिनपुरीके सुवर्णमय प्राकार सुमेरुतुल्य, उसके विशाल रत्नमय फाटक उस सुमेरुके पङ्खतुल्य तथा कुण्डिननगरी स्वर्गतुल्य है ] // 86 / / अनलैः परिवेषमेत्य या ज्वलदर्कोपलवप्रजन्मभिः / उदयं लयमन्तरा रवेरवहबाणपुरीपराद्धथताम् / / 87 // अनलैरिति / या नगरी रवेरुदयं लयमस्तमयं चान्तरा तयोर्मध्यकाल इत्यर्थः / 'अन्तरान्तरेण युक्त' इति द्वितीया। ज्वलतामकाँशुसम्पर्कात् प्रज्वलतामोपलानां वप्राजन्म येषान्तः सूर्यकान्तैः प्राकारजन्यः अनलेः परिवेषमेत्य परिवेष्टनं प्राप्य बाणपुर्याः बाणासुरनगर्याः शोणितपुरस्य पराद्धर्थतां श्रेष्ठतामवहत् / अत्रान्यधर्मस्यान्येन सम्बन्धासंभवात्तादृशीं पराद्धर्यतामिति सादृश्याक्षेपानिदर्शनालङ्कारः // 87 // ___ जो ( कुण्डिन नगरी) जलते हुए सूर्यकान्तमणिके चहारदिवारियोंसे उत्पन्न हुई अग्निके द्वारा सूर्यके उदय तथा अस्तके मध्य में अर्थात् सूर्योदयसे सूर्यास्त तक बाणासुरको नगरी ( शोणितपुर ) की ( मा-के समान ) श्रेष्ठताको धारण करती है / [ पौराणिक
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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