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________________ द्वितीयः समः। 115 नादि रहता है; उसी प्रकार उस नगरीके महलोंके भूतलके निचले भाग वाले भवनों ( तहखानों ) में रत्न-सुवर्णादि कोष, भूतल वाले भवनों में अन्नादि तथा ऊपर वाले भागों ( अट्टालिकाओं ) के भवनों में विलास-सामग्री पुष्पमाला, चन्दनादि रहते हैं? इस प्रकार तीनों लोकोंके मारभूत पदार्थोको धारण करनेवाली त्रिलोक-विभव-सम्पन्ना एक ही नगरी आश्चर्य उत्पन्न करती थी ] // 81 // दधदम्बुदनीलकण्ठता वहदत्य छसुधोज्ज्वलं वपुः / कथमृच्छतु यत्र नाम न भितभृन्मन्दिरीमन्दुमोरनाम् / / 82 / / दधदिति / यत्र नगर्यामम्बुदैरम्बुदवनीलः कण्ठ: शिखरोपकण्ठः गजश्च यस्य तस्य भावस्तत्तां 'कण्ठो गले सन्निधान' इति विश्वः / दधत् अच्छया सुधया लेपनद्रव्येण च सुधावदमृतवज्ज्वलं वपुर्वहत् 'सुधा लेपोऽमृतं सुधे'त्यमरः / क्षितिभृ. न्मन्दिरं राजभवनमिन्दुमौलितामिन्दुमण्डलपर्यन्त शिखरत्वं कथं नाम न ऋच्छतु ? गच्छत्वेवेत्यर्थः। राजभवनस्य तादृगौन्नत्यं युक्तमिति भावः / अन्यत्र नीलकण्ठस्य इन्दुमौलित्वमीश्वरत्वं च युक्तमिति भावः / अत्र विशेषणविशेष्याणां श्लिष्टानामभिधायाः प्रकृतार्थमात्र नियन्त्रणात् प्रकृतेश्वरप्रतीतेः ध्वनिरेव // 81 // जिस ( कुण्डिन नगरी ) में मेघके द्वारा नीलकण्ठत्व (नीले कण्ठके भाव, पक्षा०नीले मध्य भाग वालेका भाव ) को धारण करता हुआ तथा निर्मल चूना ( कलई ) से उज्ज्वल शरीर ( भबन ) को धारण करता हुआ राजभवन चन्द्रशेखरत्व (शिवभाब, चन्द्रमा है मस्तक-ऊपरमें जिसके ऐसे भाव ) को क्यों नहीं प्राप्त करे ? / [शिवजीका कण्ठ नीला है तथा शरीर शुभ्र है एवं उनके मस्तकमें चन्द्रमा विराजमान हैं, उसी प्रकार इस नगरीके राजमहलको भी अत्यन्त ऊँचा होनेसे उसके मध्यभागमें मेघके रहनेसे नीलकण्ठ, चूनेसे पुते होनेसे शुभ्र शरीरवाला तथा ऊपरमें चन्द्रमाको धारण करनेसे शिवभाव को प्राप्त करना उचित ही है ] / / 82 / / बहुरूपकशालभनि कामुखचन्द्रेषु कलङ्करवः / यदनेककसौधकन्धराहरिभिः कुक्षिातीता इव // 23 // बह्विति / बहुरूपकाः भूयिष्टसौन्दर्याः, शैषिकः कप्रत्ययः / तेषु शालभञ्जिकानां कृत्रिमपुत्रिकाणां मुखचन्द्रेषु कलङ्करङ्कवः चन्द्रत्वात् सम्भाविताः कलङ्कमृगाः ते यस्यां नगर्यामनेकेषां बहूनां सौधानां कन्धरासु कण्ठप्रदेशेषु ये हरयः सिंहाः तैः कुक्षिगतीकृता इव ग्रस्ताः किमित्युत्प्रेक्षा मुखचन्द्रागां निष्कलङ्कत्वनिमित्तात् , अन्यथा कथं चन्द्रे निष्कलङ्कतेति भावः // 83 // __ अनेक आकृति वाली ( या-अतिशय सुन्दर स्तम्भादिमें निर्मित हाथी-दाँत आदिकी बनी हुई ) पुतलियोंके मुखरूपी चन्द्रोंमें (सम्भावित) कलङ्क मृगोंको मानो जिस ( कुण्डिन पुरी) के बहुत-से महलोंके स्कन्ध ( मध्य ) भागमें बनाये गये सिंहोंने खा लिया है,
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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