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________________ 80 नैषधमहाकाव्यम् / अयमिति / अयं हंसः स्खलनक्षण एव मोचनानन्तरमेवेत्यर्थः। एकतमेनाङ् घ्रिणा पक्षतेः पवमूलस्वाधिमभ्यं मध्ये ऊन्वंगामिनी जङ्घा यस्मिन् कर्मणि तयथा तथा कण्डूयनेन तत्तथा द्रुतं कण्डूपितमौलिः सत्वरं कषितचूडः सन् भालयं निजा. वासं शिप्रिये श्रितवान् // 3 // वह ( हंस नलके पाससे ) छूटते ही पङ्खमूलके मध्यमें ऊपर जङ्घा करके झटपट सिरको खुजलाया तथा अपने निवास स्थानपर (घोसलेमें या-तडाग तट पर ) पहुंच गया // 3 // स गरुद्वनदुर्गदुग्रहान् कटु कीटान् दशतः सतः कचित् / नुनुदे तनुकण्डु पण्डितः पटुचञ्चपुटकोटिकुट्टनैः // 4 // - स इति / पण्डितः निपुणः स हंसः गरुतः पक्षा एव वनदुर्ग तत्र दुर्ग्रहान् ग्रहीतमशक्यान् कटुतीक्षणान्दशतः दन्तैस्तुवतः कचित् कुत्रचिदेव सतः वर्तमानान् कीटान् बुद्रजन्तून् पटुचन्चूपुटस्य समर्थनोटेः कोटया अग्रेण कुट्टनैः घुट्टनैस्तनुरल्पा कण्डूस्मिन् तनुकण्दु यथा तथा 'गोखियोरुपसर्जनस्येति' ह्रस्वः। नुनुदे निवारि. तवान् 'स्वरितजित' इत्यात्मनेपदम् // 4 // (खुमाने में ) चतुर वह हंस पङ्ख-समूहरूप दुर्ग में ( रहने से ) कठिनाईसे पकड़े जाने योग्य तथा खूब काटते हुए एवं कहीं ( अशात स्थानमें ) स्थित कोदोको तेज ( नुकीले ) चोचोंके अग्रभागके द्वारा आहत करनेसे शरीरकी खुजलाइटको दूर किया [ लोकमें भी कोई कुशल योद्धा वनादि दुर्गम भूमिमें रहने के कारण कठिनाईसे पकड़ने योग्य एवं पोढ़ा देते हुए शत्रुओंको तीक्ष्ण शखोंसे मारकर उनकी बाधाको दूर करता है] // 4 // अयमेत्य तडागनीडलघु पर्य्यत्रियताथ शङ्कितैः।। उदडीयत वैकृतात् करग्रहजादस्य विकस्वरस्वरैः // 5 // अयमिति / अयं हंसस्तहागनीजैः सरस्पतिभिस्तत्रत्यहंसः 'नीडोद्भवा गह. स्मन्त' इत्यमरः / लघु क्षिप्रमेत्यागत्य पर्यवियत परिवृतः, वृणोते. कर्मणि लक। अथ परिवेष्टनानन्तरमस्य हंसस्य करग्रहजामलकरपीडनजन्यादिकृतादेव वैकृताहि लुण्ठितपक्षस्वरूपाद्विकारदर्शनादित्यर्थः, स्वार्थेऽण प्रत्ययः, शक्तैिश्चकितैः अतएव विकस्वरस्वरैरुज्?षैस्तैरुदडीयतोड्डीनम् डीडो भारे लङ॥५॥ ( मलके ) सरोवरपर रहने वाले पक्षियोंने इस हंसको झट-पट चारों तरफसे घेर लिया और बादमें ( नलके ) हाथमे पकड़ने के विकार (इसके उच्चावच शरीरभाग ) से डरे हुए वे उच्चस्वर करते हुए उड गये। [ लोकमें भी किसी तीर्थादि मैं दान लेने के लिए दाताको बहुत-से प्रतिग्रहीता घेर लेते हैं तथा दानजन्य कलहको माशङ्कासे (छा करते हुए वहांसे चले जाते हैं ] // 5 // दधतो बहुशैवलक्ष्मतां धृतरुद्राक्षमधुव्रतं खगः / स नलस्य ययौ करं पुनः सरसः कोकनभ्रमादिव // 6 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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