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________________ 74 नैषधमहाकाव्यम् / हे देव ! मैं हो जिसका इकौता पुत्र हूँ ऐसी तथा बुढ़ापेसे पीड़ित मेरी माता है तथा नवीन प्रसववाली एवं पतिव्रता (या-दीना) मेरी प्रिया इंसी है, उन दोनों (माता तथा पत्नी) का यह व्यक्ति अर्थात मैं गति (जीविका चलानेवाग) हूँ, उसे अर्थात् मुझे मारते हुए तुम्हें करुणा नहीं रोकती है, महो! आश्चर्य (या-खेद) है। (मथवा-मुझसे एक पुत्र है जिसकी ऐसी, अजननी अर्थात मेरे मरनेके बाद भी पुत्रो. त्पादन नहीं करने वाली, बुढ़ापेसे पीडित) पतिव्रता (होनेसे युवती होने पर भी पुनः विवाह नहीं करनेसे सन्तानोत्पादन नहीं करने वाली), वप्रमें चेष्टावाळी (या-मेरे मरने पर आश्रयान्तर नहीं होनेसे पर्वत-शिखर पर धूम-घूमकर मात्मरक्षा करने वाली बरटा अर्थात मेरी प्रिया हंसी है, उन दोनों अर्थात् उस प्रिया हंसी तथा पुत्रकी गति ( जीविका चलाने वाला) यह व्यक्ति अर्थात मैं हूँ,"..." / प्रथम अर्थमें-अन्य पुत्र नहीं होनेसे तथा स्वयं जरापीड़ित होनेसे एवं मेरी खोके नवप्रसवा होनेसे माताको रक्षाका कोई उपाय नहीं है तथा स्त्री मी नवप्रसूति तथा पतिव्रता है, मत एव भव मेरे मरनेपर वह दूसरी सन्तान नहीं उत्पन्न कर सकती और पतिविरहित होकर न तो स्वयं जीविकानिर्वाह ही कर सकती है, इन दोनोंकी मैं जीविका चलाने वाला था, वह मर ही रहा हूँ। अत एव ऐसे व्यक्तिको मारते समय देव होने पर भी तुम्हें दया नहीं भाती तो मनुष्य इन नलसे दयाको आशा मैं कैसे करूँ ? / द्वितीय अर्थमें-मेरी प्रिया इंसी बुढ़ापेसे पीड़ित नहीं है, फिर भी तपस्विनी ( पतिव्रता) होनेसे पुनः दूसरे पतिके साथ विवाह कर पुत्रोत्पादन नहीं कर सकती तथा सर्वदा पर्वत-शिखरों पर ही मेरे मर जाने पर घूमती हुई भारमरक्षा करेगी अपने मन्यतम निवासस्थान मानसरोवर में कमी नहीं रहेगी, उन दोनों (प्रिया हंसी तथा पुत्रको ) मैं ही बीविका चलानेवाला हूँ"""] // 135 / / मुहूर्त्तमात्रं भवनिन्दया दयासखाः सखायः नवदश्रवो मम / निवृत्तिमेष्यन्ति परं दुरुत्तरस्त्वयैव मातः ! सुतशोकसागरः / / 136 / / अथ मातरं शोधयति-मुहूर्तेति / हे मातः ! सखायः सुहृदो क्यासखाः सदयाः भवनिन्दया संसारगर्हणेन मुहर्तमानं पणमानं स्रवदश्रवो गलिताश्रव एव सन्तो निवृत्ति शोकोपरतिमेष्यन्ति, किन्तु स्वयैव सुतशोक एव सागरः परमत्यन्तः दुःखे. नोत्तीय्यत इति दुरुत्तरो दुस्तरः तरतेः कृच्छ्रार्थे खलप्रत्ययः॥ 13 // __ आँसू गिराते हुए तथा दयायुक्त मेरे मित्र थोड़े समय तक संसारकी (संसार भनित्य है, यहां आकर अन्तमें सबको यही गति-मृत्यु होती है, काल किसीको नहीं छोड़ता, इत्यादि ) निन्दासे दुःखको भूल जायेंगे, किन्तु हे मातः ! पुत्रका शोकसमुद्र तुम्हारे लिए ही दुःखसे पार करने योग्य होगा अर्थात मित्रों को मेरी मृत्युसे क्षणमात्र कष्ट होगा, किन्तु तुम्हें जीवन पर्यन्त कष्ट सहना पड़ेगा / 136 // मदर्थसन्देशमृणालमन्थरः प्रियः कियर इति त्वयोदिते /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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