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________________ भूमिका नैषधचरितकी रचनाइस प्रकार पिताके विजयीका मानमर्दन कर श्रीहर्षने वहीं राजसमाके सदस्य होकर रहते हुए राजाशासे इस 'नैषधचरित' नामक महाकाव्यकी रचना कर राजाको दिखलाया। इसे देख प्रसन राजाने कहा कि-'कश्मीर जाकर इस महाकाव्यको सरस्वती के हाथमें दीजिये। वहाँपर साक्षात निवास करती हुई सरस्वती हाथमें दिये हुए दोषरहित ग्रन्थका शिरःकम्पनपूर्वक भमिनन्दन करती है और इसके विपरीत दोषयुक्त ग्रन्थको कूड़ेातवारके समान फेंक देती है। इस प्रकार सरस्वतीसे अमिनन्दित ग्रन्थका वहाँके राजासे प्रमाणपत्र लाइये। ऐसा कहकर और बैल-ऊँट भादिपर समुचितपाथेय तथा धन कदवाकर उन्होंने श्रीहर्षको कश्मीर भेजा। कश्मीरमें नैषधचरितका परीक्षणवर्तमान समयके समान रेल आदि साधनोंका अभाव होनेसे बहुत दिनों के बाद श्रीहर्षने कश्मीर पहुँचकर वहाँके राजपण्डितोंको अपना महाकाव्य दिखाया तथा इसे सरस्वतीके हाथमें रखा / सरस्वतीने पुस्तकको दूर फेंक दिया। यह देख श्रीहर्षने सरस्वती. से आक्षेपपूर्वक कहा कि 'मेरी पुस्तकको साधारण पुस्तकके समान दूषित समझकर तुमने क्यों अनादृत किया ? इसमें कौन-सा दोष है ?' श्रीहर्षकी आक्षेपपूर्ण बात सुन सरस्वती देवी ने कहा कि-'तुमने अपने इस ग्रन्थमें 'देवी पविनितचतुर्भुजवामभागा वागालपरपुनरिमां गरिमाभिरामाम् / एतस्य निष्कृपकृपाणसनाथपाणेः पाणिग्रहादनुगृहाण गणं गुणानाम् // ' इस पचके द्वारा मुझे विष्णुकी पत्नी कहकर लोकप्रसिद मेरे कन्याखका लोप किया है। इसी दोष के कारण मैंने पुस्तकको फेंक दिया है, क्योंकि-अग्नि, धूर्त, रोग, मृत्यु और मर्मभाषणका; ये पाँच योगियों को भी उद्विग्न कर देते हैं।' __ यह सुन महापुराणों के विशेषज्ञ श्रीहर्षने हँसते हुए कहा-'दूसरे जन्ममें तुमने विष्णुभगवान्को पतिरूपमें स्वीकार नहीं किया था क्या ? लोकमें मी तुम्हें लोग 'विष्णुपत्नी' नहीं कहते है क्या ? तब मेरे सत्य कहनेपर व्यर्थ ही क्रुद्ध होकर तुम मेरी पुस्तकको क्यों सदोष कह रही हो? / श्रीहर्षोक्त उक्त वचनको सुनकर सरस्वतीने पुस्तकको पुनः हाथमें लेकर उसकी प्रशंसा की। तदनन्तर श्रीहर्षने वहाँके राजसभासद पण्डितोंको सरस्वत्यनु. मोदित उक्त पुस्तक देकर कहा कि-'सरस्वती देवीने आपलोगों के समक्ष इस पुस्तककी प्रशंसा की है, अत एव आपलोग यहाँ के राजा 'माधवदेव'को यह पुस्तक दिखलाकर यह रचना शुद्ध है। ऐसा राजलेख 'काशिराज जयन्तचन्द्र' के लिए मुझे दें।। परन्तु पण्डितों में दूसरे किसी नये पण्डितके प्रति स्वमाचसे ही अस्या होती है, इस लोकनियमसे मावद उन 1. 'पावको वञ्चको व्याधिः पञ्चत्वं मर्मभाषकः। योगिनामप्यमी पञ्च प्रायेणोद्वेगकारकाः // इति /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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