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________________ जो अरय छगम्मि, असी सत्तरि सट्ठी पन्न बार जोयणाए। सगरयणी वित्थिन्नो, सो विमलगिरि जयउ तित्थं।। अर्थ-जो छः आरा-कालचक्र में 80, 70, 60, 50, 12 योजन और सात हस्त जितनी विस्तारयुक्त है, उस विमलगिरि तीर्थ की जय जयकार हो। जिस तरह इस तीर्थाधिराज की ऊंचाई क्रमशः कम होती जा रही है, ठीक इसी प्रकार उनके माहात्म्य दर्शन श्लोकविवेचन भी क्रमशः कम होता जा रहा है। जैन परम्परा में तीर्थाधिराज सिद्धाचल की महिमा अपार है। जैन समाज असीम श्रद्धा, भाव और आदर से इस तीर्थ की यात्रा करते हैं। अनादिकाल से इस तीर्थ ने अपना माहात्म्य सुरक्षित रखा है। सर्वज्ञ अर्हत् प्ररूपित वीतराग देव के शासन में ऐसी लोकोत्तमपूर्ण उपासना श्रद्धा-भक्ति के साथ की जाए तो भव्यात्मा उसके आलंबन, दर्शन, स्पर्शन द्वारा निश्चित रूप से संसार सागर पार करके मुक्तिपद-मोक्ष के शाश्वत सुख प्राप्त कर सकें, यह निःशंक है। वर्तमान समय में भी इसी तीर्थस्थान पर अनेकविध धार्मिक प्रवृत्तियां, जैसे निन्यान्वे यात्रा, वर्षीतप, चातुर्मासिक तप आदि विविध तपाराधनाएं विपुल मात्रा में हो रही हैं। इस विषमकाल, जहां भौतिकवाद अग्रसर है, पश्चिमीकरण का प्राधान्य है, वहीं विपुल संख्या में भव्य जीव तीर्थाधिराज शत्रुजय के दर्शनार्थ अभिग्रह और श्रद्धा के साथ नंगे पांव जाते हैं, वह उनकी अप्रतिम, अनन्य श्रद्धा का प्रतीक है। शत्रुजय यात्रा का माहात्म्य आगम ग्रंथों में भी उपलब्ध है। कालिकाचार्य ने शत्रुजय माहात्म्य विषयक कहा है श्री शत्रुजय तीर्थे-यात्रा संघ समन्वितः। चकार तस्य गीर्वाण-शिवश्रीनहि दुलभा।। वस्त्राान्नजलदानेन, गुरोः शत्रुजये गिरौ। तद् भक्त्याऽत्र परत्रेह-जायन्ते सर्व सम्पदः।। शत्रुजयाभिधेतीर्थे-प्रासादात्-प्रतिमाश्च ये। कारयन्ति हि तत्पुण्यं, ज्ञानिनो यदि जानते।।" अर्थ-श्री शत्रुजय तीर्थ विषयक संघ सहित जिन्होंने यात्रा की है, उसे देवलक्ष्मी और मोक्षलक्ष्मी दुर्लभ नहीं है। श्री शत्रुजयगिरि पर गुरुजनों को वस्त्र, अन्न और जलदान करने से और उनकी भक्ति से लोक और परलोक में सर्व-सम्पत्ति प्राप्त होती है। शत्रुजय तीर्थ विषयक जो प्रासाद और प्रतिमाएं, जिनबिम्ब का निर्माण करवाते हैं, उससे प्राप्त पुण्य ज्ञानी ही जान सकते हैं। इसी तरह ज्ञाताधर्मकथा सूत्र के पांचवे अध्ययन के थावच्चापुत्र कथाधिकार में शत्रुजय का माहात्म्य प्रदर्शित किया गया है। "तएणं से थावच्चापुत्रे अणगार सहस्सेणं सद्धिं संपुरिवुडे जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छिता पुडरीयं पव्वयं सणियं सणियं दुरुहति, दुरहित्ता मेघघण सन्निकासं देवसन्निवायं पुढविसिला पट्टयं जाव पाओ गमणं उवावन्ने।" "तएणं से सुए अणगारे अन्नया कयाइं तेण अणगार सहरसेणं सद्धि संपरिवुडे जेणेव पुंडरीए जाव सिद्धे।'' 114 -पटदर्शन
SR No.032780
Book TitlePat Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana K Sheth, Nalini Balbir
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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